Tuesday, November 22, 2016

आयुर्वेद चिकित्सा के सिद्धांत व प्रयोग: 7 'समय के अनुरूप बदलाव ही समाधान'

आयुर्वेद चिकित्सा के सिद्धांत व प्रयोग: 7 'समय के अनुरूप बदलाव ही समाधान'




मैं घर पहुंचा, भोजन किया, और दिन भर में घटी घटनाओं व चर्चाओं का मानसिक पुनरावलोकन करने लगा।

रह रह कर एक ही विचार मेरे मन-मस्तिष्क में पुनः पुनः गुंजायमान हो रहा था, 'नि:सन्देह आयुर्वेद एक सशक्त जीवन विज्ञान (Life science) है जो इतिहास के भीषण थपेड़ों के बावजूद आज भी अपनी सार्थकता का ध्वज बुलन्द किये हुए है। फिर, ऐसा क्या हुआ कि यह जीवन विज्ञान अपने ही देश में दूसरे दर्जे पर आ गया?'

'निश्चित रूप से कुछ तो है जिसने आयुर्वेद के संग अपने तमाम भावनात्मक जुड़ावों के बावजूद भारतवासियों को अपनी निष्ठा के सूत्र, दुष्प्रभावों (Adverse effects) से सराबोर किसी विदेशी चिकित्सा पद्धति के साथ बाँधने पर मजबूर कर दिया,' मैं सोच रहा था।

इस विचार से मेरा मन-मस्तिष्क इस क़दर उद्वेलित हो उठा कि मैं सारी रात ठीक से सो न सका।
भोर होने से पहले ही मैं बिछौना छोड़, छत पर टहलने लगा। पूरब के आकाश की कालिमा धीरे-धीरे कम होने लगी थी। उत्तर से आने वाली शरद ऋतु की पर्वतीय ब्यार जम्मू का वातावरण अत्यन्त सुहावना बना रही थी।

इस प्रश्न पर किसके संग चर्चा की जाए, यह सोचते-सोचते काफी देर तक मेरी चहलक़दमी चलती रही।
फिर सहसा एक चेहरा मेरे मानस-पटल पर बिजली की तरह कौंध गया। 'हो न हो यह व्यक्ति मुझे इस प्रश्न का उत्तर ढूंढने में अवश्य सहायक होंगे,' मुझे लगा।

यह व्यक्ति थे - मेरे कायचिकित्सा के प्राध्यापक डाॅ. राजेन्द्र वर्मा जी।
गुजरात आयुर्वेद यूनिवर्सिटी, जामनगर के स्नातकोत्तर आयुर्वेद संस्थान से HPA, डाॅ वर्मा जी आयुर्वेद के एक मूर्धन्य विद्वान व श्रेष्ठ अध्यापक थे। उनकी गणना जम्मू के सफल चिकित्सकों में की जाती थी। डाॅ वर्मा जी अपनी प्रैक्टिस में आयुर्वेद के साथ-साथ ऐलोपैथिक औषधियाँ भी प्रयोग किया करते थे।
मैंने डाॅ. वर्मा जी से भेंट कर चर्चा का मन बनाया।
...


प्रातः लगभग साढ़े दस बजे मैंने कायचिकित्सा विभाग में प्रवेश किया । सौभाग्यवश डाॅ. वर्मा जी उस समय अपने कक्ष में अकेले ही कुछ लैबरेटरी रिपोर्टस् देख रहे थे।
मैंने उन्हें नमस्कार किया व उनके सामने खड़ा हो गया ।

'कहो डाॅ. सुनील, कैसे आना हुआ?' डाॅ वर्मा जी ने अपनी चिरपरिचित भारी-भरकम आवाज़ में, पास पड़ी कुर्सी की ओर मुझे बैठने का संकेत करते हुए पूछा।
'सर, कुछ जिज्ञासा थी।' मैंने सकुचाते हुए धीमे स्वर में कहा। 'समय हो तो पूछूँ?'

'हाँ हाँ, पूछो यार जो पूछना है', डाॅ. वर्मा जी ने बेबाकी से कहा।
'सर, पिछले कुछ समय से एक प्रश्न मुझे बराबर कचोट रहा है कि आयुर्वेद भारत का एक सशक्त जीवन विज्ञान होने के बावजूद अपने ही देश में दूसरे दर्जे पर क्यों चला गया; जबकि अनेकों दुष्प्रभावों (Adverse effects) से सराबोर विदेशी चिकित्सा पद्धति - ऐलोपैथी यहाँ प्रथम दर्जे पर कब्जा किए बैठी है?' मैंने एक ही सांस में अपने मन की व्यथा उनके समक्ष प्रस्तुत कर दी।

मैंने देखा, प्रश्न सुनते ही डा. वर्मा जी का चेहरा एकदम गम्भीर हो गया था।
'अरे यार, कुछ दिनों में डॉक्टर बन जाओगे; आगे क्या करना है, यह सोचो; यह क्या ऊल जलूल बातें सोचे जा रहे हो?" उन्होंने मेरे मनोभावों को भाँपने वाली एक गहरी दृष्टि मेरे चेहरे पर डालते हुए मुझे पलट प्रश्न कर दिया।
मैं ख़ामोश रहा। बस उनकी ओर उत्तर की प्रतीक्षा करते हुए निहारता रहा।

मैंने उनके चेहरे पर निरन्तर बदलते भावों को देख अनुमान लगा लिया था कि निश्चय ही वह मेरे इस अप्रत्याशित प्रश्न से किञ्चित् उद्विग्न हो गए थे।
कमरे में ख़ामोशी का एक लम्बा अन्तराल छाया रहा। सम्भवतः डाॅ. वर्मा जी मेरे प्रश्न का यथोचित उत्तर तलाशने का पूरा प्रयास कर रहे थे।

फिर अपनी आँखों को ज़रा संकुचित करते हुए व चेहरे पर कुछ गम्भीरता लिए वह बोले, 'यूँ तो इसके अनेकों कारण हो सकते हैं, मगर मेरी नज़र में इसका सबसे बड़ा कारण है - आयुर्वेद का समय के साथ-साथ अपने आप को न बदलना'।

मैं बिना कुछ कहे उनकी ओर एकाग्रता से देखता रहा।
वह कुछ सोचने के लिए रुके और फिर आगे बोले, 'इससे सबसे बड़ी हानि यह हुई कि आयुर्वेद के मनीषियों द्वारा निष्पादित आयुर्वेद के मूलभूत सिद्धांतों (Principles) व उनके प्रयोग (Practice) के बीच आवश्यक कड़ियों का युगानुरूप विकास नहीं हो सका। परिणामतः, उत्तरकालीन वैद्यों को आयुर्वेद के मूलभूत सिद्धांतों को गहराई से समझने, परखने, व चिकित्सा में उनका उपयोग करने में भारी कठिनाई आई।'

'मेरा मानना है कि प्राचीन भारत में जिस रीति व गति से विज्ञान का प्रारम्भ व विकास शुरू हुआ था, यदि उत्तरकालीन भारत में भी वह रीति व गति जारी रहती तो निश्चित रूप से आयुर्वेद के सिद्धांतों व उनके प्रयोग के बीच आवश्यक कड़ियों का विकास भी निरन्तर चलता जाता। ऐसे में आज आयुर्वेद की स्थिति सर्वथा भिन्न व कहीं अधिक बेहतर होती।' वह बिना रुके कहते चले गए।

'दूसरी ओर ऐलोपैथी ने लोगों की बदलती जीवनशैली व स्वास्थ्य सम्बन्धी आवश्यकताओं को जानने, पहचानने, व तदानुरूप बदलते हुए समाधान देने का सिलसिला जारी रखा। परिणाम हम सब के सामने हैं। जहाँ एक ओर आयुर्वेद को अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है, ऐलोपैथी निर्बाध रूप से उन्नति की राह पर सरपट दौड़ रही है।' वह धारा-प्रवाह बोलते जा रहे थे।

'अब ज़रा आज के आयुर्वेद चिकित्सकों के परिदृश्य पर नज़र डालते हैं। आधुनिक विज्ञान - Physics, Chemistry, Biology - की पृष्ठभूमि से आया एक विद्यार्थी आयुर्वेद में प्रवेश पाता है। हम उसे ऐसी भाषा व ढंग से आयुर्वेद के सिद्धांतों (Principles) व प्रयोगों (Practices) को आत्मसात् व प्रयोग करने को कहते हैं जिन्हें उसका वैज्ञानिक मन-मस्तिष्क स्वीकार करने से इन्कार करता है।

 वह इस परिपाटी में संशोधन की मांग करता है तो हम उसे कई प्रकार के भय व मजबूरियां दिखा कर उसे यथास्थिति को स्वीकार करने पर बाध्य करते हैं। फिर जब आयुर्वेद का वह विद्यार्थी डॉक्टर (वैद्य) बन कर समाज में जाता है तो उसे अपने अर्जित ज्ञान व समाज की आवश्यकताओं में सामंजस्य स्थापित करने में असीम कठिनाई का सामना करना पड़ता है। उसे अपने विकास के लिए बहुत कम अवसर दिखाई देते हैं। 

ऐसे में उसका मन-मस्तिष्क गहन असन्तोष व उद्विग्नता से भर जाता है। अपने व अपने परिवार के अस्तित्व के लिए उसे कई हथकंडे अपनाने पड़ते हैं। वह सरकारी नौकरी के लिए हाथ-पैर मारता है, ऐलोपैथिक दवाओं का सहारा लेता है, तथा कभी-कभी तो वैद्यक छोड़ किसी अन्य पेशे को अपना लेता है। असन्तोष के ऐसे आलम में आयुर्वेद के उस डॉक्टर (वैद्य) से किसी महान उपलब्धि की आशा करना मूर्खता नहीं तो क्या है? आयुर्वेद के केवल मुट्ठी भर डाॅक्टर ( वैद्य) ही हैं जो इन तमाम दिक्कतों का सामना करते हुए इस जीवन विज्ञान के अस्तित्व व विकास के लिए आजीवन संघर्षरत रहते हैं।'

 उन्होंने अपनी बात को समझाने की पूरी कोशिश करते हुए लघु किन्तु अत्यन्त भावुकतापूर्ण व सारगर्भित भाषण दे दिया ।
उनके चुप होते ही मैंने तपाक से पूछ लिया, 'सर, यह तो हो गई समस्या। अब आपकी नज़र में इसका समाधान क्या हो सकता है?'

उन्होंने कुर्सी की पीठ पर गर्दन टिकाई व काफ़ी देर तक छत की ओर देखते रहे। फिर तनिक सीधा बैठते हुए बोले, 'बदलाव!'
'किस में बदलाव, सर?' मेरे स्वर में अधीरता थी।

'सब कुछ में' उन्होंने संक्षिप्त सा उत्तर दिया व बिना कुछ कहे कमरे से बाहर चले गए।
मैं उनके आने की प्रतीक्षा में चुपचाप बैठा रहा।
कुछ देर बाद वह कमरे में वापस लौट आए व अपने स्थान पर बैठ गए। 

फिर मेज़ पर अपनी दोनों कुहनियाँ टिका कर, आगे झुकते हुए मेरी आँखों में आँखें डालते हुए बोले, 'सब कुछ का मन्थन करना जरूरी है - सिद्धाँत (Principles) का भी व प्रयोग (Practices) का भी। आयुर्वेद को गोपनीय (Mystical), चमत्कारिक (Magical), व किताबी (Theoretical) की परिधि से बाहर निकाल कर इसे यथार्थवादी (Realistic) बनाने की कोशिश करनी होगी, ताकि आयुर्वेद का चिकित्सक समाज में आने के बाद अपने आप को अलग-थलग न पा कर चिकित्सा क्षेत्र की मुख्य धारा में ही पाए।'

फिर वह चुप हो गए ।
'धन्यवाद सर', मैंने मुस्कुराते हुए पूरे जोश के साथ कहा। मेरी जिज्ञासा काफी सीमा तक शान्त हो गई थी।
मुझे संतुष्ट व प्रसन्न देख उनके चेहरे पर एक चौड़ी मुस्कान फैल गई।

तभी तीन चार डॉक्टर डा. वर्मा जी के कक्ष में प्रविष्ट हुए।
मैं झट से खड़ा हो गया। मैंने डाॅ. वर्मा जी को नमस्कार किया व कमरे से बाहर निकल आया ।

मेरे कानों में डाॅ. वर्मा जी के शब्द अभी भी गूंज रहे थे, 'प्राचीन भारत में जिस रीति व गति से विज्ञान का प्रारम्भ व विकास शुरू हुआ था, यदि उत्तरकालीन भारत में भी वह रीति व गति जारी रहती तो निश्चित रूप से आयुर्वेद के सिद्धांतों व उनके प्रयोग के बीच आवश्यक कड़ियों का विकास भी निरन्तर चलता जाता। ऐसे में आज आयुर्वेद की स्थिति सर्वथा भिन्न व कहीं अधिक बेहतर होती।'

मैंने मन ही मन अपने आप से कहा, 'काश! ऐसा होता!'

डाॅ.वसिष्ठ
Dr. Sunil Vasishth
M. + 91-9419205439
Email : drvasishthsunil@gmail.com
Website : www.drvasishths.com

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