Wednesday, November 23, 2016

आयुर्वेद चिकित्सा के सिद्धांत व प्रयोग - 38

आयुर्वेद का हृदयरोग विशेषज्ञ बनने की मेरी उत्कट इच्छा





जुलाई 1982 में हम बी.एॅच.यू. के इन्स्टिट्यूट अॅव मैडीकल साईंसिज (IMS, BHU) में एॅम.डी. आयुर्वेद प्रथम वर्ष की परीक्षा उत्तीर्ण कर द्वितीय वर्ष में आ गए।

द्वितीय वर्ष में आते ही दिनचर्या एकदम से बदल गई थी।  हमारे बैच के अधिकांश छात्रों ने इस बात से राहत की सांस ली थी कि चलिए अब प्रथम वर्ष की कसी हुई रूटीन से पिण्ड छूटा।

मगर मेरे लिए कुछ न बदला था।
मैं हर दिन प्रातः 6 बजे जगता, ज़ल्दी-ज़ल्दी तैयार होता, व 7:30 बजते-बजते बी.एॅच.यू. के सर सुन्दर लाल चिकित्सालय में कायचिकित्सा वार्ड में पहुँच जाता।

वहाँ पहुँच कर मैं नियमित राऊँड लगाता, जाँच के लिए रोगियों के ब्लड के सैम्पल्ज़ निकालता, व निर्दिष्ट शीशियों में डाल कर नर्सिंग स्टाफ़ के हवाले करता, जो आगे फिर उसी तल पर स्थित कायचिकित्सा लैब में उन्हें भेज देते।

तत्पश्चात् मैं भूतल पर स्थित कमरा नं. 22 में कार्डियो-रैस्पिरेटॅरि स्पैशल्टी ओ.पी.डी. में आ जाता व वहाँ आने वाले रोगियों को अटैंड करता व नियमानुसार गम्भीर रूप से बीमार रोगियों को यूनिट के वरिष्ठ चिकित्सकों को रैफर कर देता।

दोपहर के समय मैं सड़क के उस पार, चिकित्सा विज्ञान संस्थान के द्वितीय तल पर स्थित कैंटीन में भोजन करता, और उसके तत्काल बाद उसी भवन के भूतल पर स्थित इन्स्टिट्यूट लायब्रेरी में जा बैठता।

सायंकाल 7 बजे मैं पुनः कायचिकित्सा वार्ड में आ जाता, राऊँड करता, रोगी-पत्रकों (Case sheets) को भरता, उन पर आवश्यक टैस्ट लिखता, व लगभग 9 बजे अपनी सैकंड हैंड सायकल ले कर बी.एॅच.यू. के बाहर स्थित लंका के पंजाब होटल अथवा सेवक होटल में रात्रिभोजन करता।

अन्त में मेरी सायकल अनायास संकटमोचन हनुमानजी के मंदिर की ओर घूम जाती। फिर रात्रि लगभग 10-11 बजे नागार्जुन छात्रावास में अपने कमरा नं. 5 में लौटता।

कुछ देर पढ़ने के बाद मैं सो जाता और दूसरे दिन प्रातः 6 बजे से पुनः वही रूटीन शुरु हो जाती। 
कुछ ही दिनों में सब कुछ पूरी तरह से दिनचर्या में आ गया।
 
फिर कुछ सप्ताह बाद इस बात की चर्चा ज़ोरों से शुरु हो गई कि किस छात्र को शोध-प्रबन्ध (Thesis) के लिए कौन सा विषय (Topic) मिलेगा।

एक सायं मैं अपने गाईड श्रद्धेय प्रो. एॅस.एॅन. त्रिपाठी जी के नरिया स्थित सरकारी आवास पर, वार्ड में भर्ती यकृद्दाल्युदर-जन्य जलोदर (Ascites due to cirrhosis of liver) के रोगी की चिकित्सा के बारे में आवश्यक निर्देश लेने के लिए पहुँचा ।
बातों ही बातों में गुरुजी ने शोध-प्रबन्ध के विषय के बारे में मेरी रुचि जाननी चाही।

मैं जानता था कि गुरुजी कायचिकित्सा विभाग के कार्डियो-रैस्पीरेटॅरि इकाई (Cardio-respiratory unit) के अध्यक्ष थे। अतः यह स्वाभाविक ही था कि मुझे हृदयरोग (Cardiology) या फुफ्फुसरोग (Pulmonary diseases) में से ही किसी रोग पर शोध-प्रबन्ध के लिए कोई विषय मिल सकता था।

किन्हीं अज्ञात कारणों से, बी.ए.एॅम.एॅस. के दिनों से ही मेरी रुचि हृदय रोगों की ओर ही थी।
मैंने अपनी इच्छा गुरुजी पर प्रकट कर दी व वापस अपने नागार्जुन छात्रावास आ गया।
मैं खुश था। मुझे लग रहा था कि मेरा प्रिय विषय - हृद्रोग (Cardiology) मुझे अवश्य ही मिल जाएगा ।

छात्रावास के दालान में प्रवेश करते ही मैं अपने कमरे के लिए दाहिनी ओर घूमने ही वाला था कि सामने मैस की ओर से आती हुई एक आवाज़ ने मेरे क़दम रोक दिए।
'कहो डाॅ. सुनील कहाँ से आ रहे हैं?' बोलने वाले सज्जन मुझ से दो वर्ष वरिष्ठ छात्र थे। वह मैस के भीतर से खाना खा कर आ रहे थे।
'जी, गुरुजी के यहाँ से आ रहा हूँ!' मैंने हल्के से मुस्कुराते हुए कहा।

'वाह बेटा, अभी जुम्मा-जुम्मा चार दिन हुए नहीं सैकण्ड ईयर में आए, और बटरिंग (मक्खनबाज़ी) शुरु'! उन्होेंने एक कुटिल मुस्कान से मेरे चेहरे के भावों को पढ़ते हुए मेरी ओर देखा।
'जी नहीं! मैं तो किसी ज़रूरी काम से गया था', मैंने झेंपते हुए कहा।

'अरे हम सब जानते हैं। बी.एॅच.यू. में एक ही ज़रूरी काम होता है - बाॅस को मक्खन लगाने का काम। खैर, आओ यार बैठते हैं, मेरे कमरे में, कुछ गपशप करते हैं' उन्होंने मेरा हाथ पकड़ते हुए कहा, और मुझे अपने कमरे की ओर ले गए।
मैं अनमना सा, अपने वरिष्ठ छात्र के संग हो लिया ।

कमरे में पहुंचते ही उन्होंने मुझे बैड के पास पड़ी कुर्सी की ओर बैठने का संकेत किया व एक भद्दे स्वर में डकार लेते हुए बिस्तर पर लगभग पसर से गए।
स्पष्ट था, शुक्रवार संध्या के पकवान का आकण्ठ सेवन करने के बाद, वह बैठ पाने की स्थिति में तो कत्तई न थे।

मैंने कमरे में इधर-उधर नज़र दौड़ाई। हर वस्तु अत्यन्त करीने से सजाई गई थी। सजी वस्तुओं में शैल्फ़ में पड़ी उनकी पुस्तकें भी थीं, जो सम्भवतः महीनों से हिलाई तक न गई थीं।
'तो डाॅ. सुनील, थीसिस का टाॅपिक-वाॅपिक कुछ डिसाइड हुआ कि नहीं?' उन्होंने एक मोटे से तकिए पर कोहनी टिकाते हुए लापरवाही से पूछा।

'जी अभी तो नहीं, पर लगता है अगले कुछ दिनों में हो जाएगा', मैंने कुछ उत्साह से कहा। अचानक थीसिस के लिए अपने मनवांछित विषय, हृद्रोग के मिलने की सम्भावना के विचार से, मैं खुश हो गया था।
'वैसे आपको कार्डियक या रैस्पीरेटॅरि में से ही कुछ मिलेगा । त्रिपाठी जी के युनिट में इन दो टाॅपिक्स पर ही तो काम हो रहा है....'
उत्तर में मैं कुछ बोल पाता, वह फिर बोल उठे, 'वैसे आपका इंटेरैस्ट है किस में - हार्ट या चैस्ट?'

'जी, हार्ट ...' मैंने अपनी उत्सुकता को दबाते हुए, धीरे से कहा।
'हार्टऽऽऽऽऽऽऽऽ...?????', वह उचक कर बैठते हुए बोल उठे।
उनकी इस हरक़त को देख, मैं लगभग घबरा सा गया।

'अरे क्या करोगे हार्ट पे काम करके? कार्डियोलाॅजिस्ट बनना चाहते हो? वो भी चरक के ग्यारह श्लोकों (च.सू. 17:30-40) से?' मेरी बात से उनमें अचानक आ गई असहजता से मैं हतप्रभ था।
मुझे यह समझ पाने में कठिनाई हो रही थी कि आखिर मैंने ग़लत क्या कह दिया था।

'???' मैं कुछ न कह सका, बस प्रश्नात्मक निग़ाहों से उनकी अगली प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा करता रहा।
फिर वह तनिक सहज हो कर बोले, 'देखो भैया, आयुर्वेद में कुछ फर्क नहीं पड़ता कि आप हार्ट पे थीसिस लिखते हैं या लंग्स पे या किसी और पे। डिग्री वही मिलनी है - एॅम.डी. आयुर्वेद। तो काहे को बेमतलब की स्ट्रैस....? हैं??? मेरी मानो तो कोई हल्का-फुल्का सा टाॅपिक ले कर थीसिस जमा करा दो। कौन भाव देता है, एॅम.डी. आयुर्वेद की रिसर्च को? लायब्रेरी में जा कर देखो, हज़ारों थीसिस धूल चाट रहे हैं किसी कोने में। यही हश्र होने वाला है आपके थीसिस का भी....'

मेरा मन बैठने लग गया था। उनकी नकारात्मक बातों ने मेरी समस्त ऊर्जा निचोड़ दी थी। मेरा दम घुटने लगा था।
मैं उनके कमरे से बाहर निकलने का बहाना ढूंढ ही रहा था कि अचानक किसी ने कमरे के अधखुले दरवाज़े को खोलने के लिए हल्का सा धक्का दिया।

मैं सहसा उठा, अपने उन वरिष्ठ छात्र से हाथ मिलाया, व बदहवास कमरे से बाहर आ गया, यह देखे बिना कि आगन्तुक कौन था।
अपने कमरे में आ कर मैं बिस्तर पर औंधे मुँह लेट गया, निढाल, और मेरे उन वरिष्ठ छात्र के नकारात्मक विचारों की सत्यता पर ऊहापोह करने लगा।

फिर, सहसा मेरे मन में एक विचार विद्युत गति से उभर आया - 'हृदय रोग को चरक के ग्यारह श्लोकों तक सीमित कर देखना इस विशाल जीवन विज्ञान का घोर अपमान है। इस प्रकार का दृष्टिकोण उस संकुचित विचारधारा का परिणाम है, जो आयुर्वेद को पूर्णरूपेण आधुनिक विज्ञान की दृष्टि से देखती है। 

वास्तविकता तो यह है कि स्वास्थ्य व उससे जुड़ी समस्याओं को देखने व उनका समाधान करने की आयुर्वेद की शैली सर्वथा स्वतंत्र व विशिष्ट है, जिसके आधार पर न केवल हृद्रोग, अपितु पृथ्वी पर मौजूद समस्त रोगों को आयुर्वेद के शाश्वत सिद्धांतों के आधार  पर समझा व उनकी यथासम्भव चिकित्सा की जा सकती है।'

इस विचार ने मुझ में अप्रत्याशित ऊर्जा का संचार कर दिया था। मैं मुस्कुराया और उछल कर खड़ा हो गया।

मैंने अपने दोनों बाजू ऊपर उठाए, कस कर मुट्ठियाँ भींचीं, जबड़े कसे, और दाँत पीसते हुए अपने आप से कहा, 'हाँ, मैं बनूँगा आयुर्वेद का हृदयरोग विशेषज्ञ!'
क्रमशः


डाॅ. वसिष्ठ
Dr. Sunil Vasishth
M. + 91-9419205439
Email : drvasishthsunil@gmail.com

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