Wednesday, November 30, 2016

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  • Godanti bh. 400 mg
  • Vatsanabh sh. 15 mg
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डाॅ.वसिष्ठ
Dr. Sunil Vasishth
M. + 91-9419205439
Email : drvasishthsunil@gmail.com

Tuesday, November 29, 2016

आयुर्वेद चिकित्सा के सिद्धांत व प्रयोग -41

हार्ट फेलियर (Heart failure) - 3



चिकित्सा विज्ञान संस्थान के द्वितीय तल पर कदम रखते ही, इन्स्टिट्यूट कैंटीन से आ रही भोजन की मनमोहक सुगन्ध ने मेरा ज़ोरदार स्वागत किया।

मैं लम्बे डग भरता काॅरिडाॅर के अन्तिम छोर पर पहुँचा, और फिर बाएँ घूमते हुए कैंटीन के भीतर प्रवेश कर गया ।
कैंटीन हाॅल लोगों से खचाखच भरा था। इनमें से अधिकांश लोग मैडीकल फैकल्टी के एॅम.बी.बी.एॅस. तथा कुछेक माॅडर्न एॅम.डी. / एॅम.एॅस. से थे।

आयुर्वेद फैकल्टी के बस इक्का-दुक्का लोग ही थे।
मैं तेज़ कदमों से हाॅल पार करके कूपन खिड़की पर पहुँचा जहाँ 3-4 लोग पंक्ति में खड़े थे।
पंक्ति की शुरुआत में खड़े दो युवा लोग एॅम.बी.बी.एॅस. के छात्र प्रतीत हो रहे थे। वे अठखेलियाँ करते हुए आपस में बतियाए जा रहे थे। उनके पीछे व मेरे एकदम आगे खड़े एक अधेड़ सज्जन चुपचाप खड़े थे।

तभी कूपन खिड़की पर बैठा कैशियर किसी काम से भीतर किचन में चला गया। इससे आगे खड़े छात्र परेशान हो कर कुछ अंटसंट बोलने लगे थे। 
मेरे आगे खड़े सज्जन ने पीछे घूम कर मेरी ओर देखा व हल्का सा मुस्कुराए।
बदले में मैं भी हल्का सा मुस्कुरा दिया।

तभी सहसा खिड़की पर हलचल बढ़ गई । मैंने देखा, कैशियर वापस आ गया था।
फिर हम सब ने बारी-बारी पैसे दिए, कूपन लिए, व खाने की स्वयं सेवा (Self service) वाली सर्विंग विन्डो पर कूपन जमा करा कर, अपने-अपने खाने की थाली की प्रतीक्षा करने लगे।

इस दौरान मेरी उन सज्जन के साथ दो तीन बार नज़र फिर टकराई, व वह इतनी ही बार मुस्कुराए। मैं उनकी सहृदयता से प्रभावित हुए बिना न रह सका।
मैं भी उनकी हर मुस्कान का हल्की सी मुस्कान से जवाब देता रहा।

ज्यों-ज्यों मैं उनकी ओर देखता, मुझे उनका व्यक्तित्व और अधिक आकर्षक लगने लगता।
पूरी बाजू की सफेद शर्ट, काली पैंट, मध्यम देह यष्टि, गौर वर्ण, सुन्दर नाक-नक्ष, आँखों पर काले फ्रेम का नुकीला चश्मा, पैंट कि दाहिनी जेब में डाली हुई स्टैथॅस्कोप, पैंट की पिछली जेब में ठूंसा हुआ एक अंग्रेज़ी नाॅवल, एक बाजू पर टंगा काले रंग का छाता, व बोलती आँखों में ग़जब की चमक।

यह सब उन्हें अन्य सभी से हट कर, परन्तु बेहद आकर्षक बनाने के लिए काफ़ी था।
तभी उनकी थाली आ गई - अंडा करी व चावल।

उन्होंने निहायत सलीक़े से अपनी थाली उठाई व हाॅल के एक कोने में खाली पड़े टेबल पर जा बैठे।
फिर मेरी थाली भी आ गई - रोटी चावल, सब्जी व दाल। मैंने भी अपनी थाली उठाई व एक अन्य खाली टेबल पर जा बैठा।

भोजन करते-करते अचानक श्री संगम लाल जी के रोग का विचार मेरे मन में आ गया।
यह सही था कि उनके रोग का निदान - हार्ट फेलियर - स्पष्ट था। तो भी, उनको होने वाले हार्ट फेलियर की प्रतिलोम सम्प्राप्ति (Reverse pathogenesis) का अध्ययन करने की उत्कण्ठा, मेरे भीतर हर गुजरते लम्हें के साथ बढ़ती चली जाती थी।

मैंने ज़ल्दी-ज़ल्दी भोजन समाप्त किया व शीघ्रता से भूतल पर स्थित इन्स्टिट्यूट लायब्रेरी में आ गया।
मैंने एक रैक में से हैरीसन (Harrison) तथा सीसिल (Cecil) की मैडिसिन की दो पुस्तकें व हर्स्ट (Hurst) की द हार्ट (The Heart) नामक पुस्तक उठाईं, व एक कोने में खाली पड़ी टेबल पर जा बैठा।
कहने की आवश्यकता नहीं कि उस दिन मुझ पर हार्ट फेलियर (Heart Failure) के गहन अध्ययन का भूत सवार था।

हार्ट फेलियर मेरे लिए कोई नवीन विषय था, ऐसी बात नहीं थी।
बी.ए.एॅम.एॅस. कोर्स में मैंने इसे भली-भाँति पढ़ा था तथा पढ़ाने वाले भी कोई और नहीं बल्कि गवर्नमेंट मैडीकल काॅलिज, जम्मू के विद्वान प्रोफेसर्स थे ।

परन्तु, फिर भी मुझे लगता था कि इस विषय को कहीं अधिक गहराई व स्पष्टता से जानने की आवश्यकता थी, जो कम से कम स्नातक स्तर पर सम्भव नहीं थी।

अगले कई घण्टों तक मैं उपरोक्त पुस्तकों के साथ-साथ कई अन्य पुस्तकों का भी अध्ययन करता रहा।
पढ़ने का मेरा ढंग ऐसा था कि कुछ देर तक तो मैं पढ़ता, व फिर कुछ देर तक आँखें बन्द कर पढ़े हुए तथ्यों पर गहरा मनन कर उन्हें अन्तर्मन में देखने व आत्मसात् करने का प्रयास करता।

सच तो यह है कि हार्ट फेलियर सरीखे जटिल रोग की सम्पूर्ण सम्प्राप्ति को मैं सरल से सरल रीति से समझना चाहता था।

मैंने देखा कि लगभग हरेक लेखक व वैज्ञानिक ने हार्ट फेलियर को विभिन्न पहलुओं से देखने व वर्णित करने, व इसे वर्गीकृत करने का भरपूर प्रयास किया था।

उदाहरण के लिए, हार्ट फेलियर किस गति से हुआ है, उसके आधार पर इसको निम्न दो भेदों में विभक्त किया गया था -

1. Acute heart failure - अर्थात् तीव्रता से (कुछ मिनटों, घण्टों, दिनों अथवा सप्ताहों) में होने वाला हार्ट फेलियर; तथा

2. Chronic heart failure - अर्थात् धीरे-धीरे, लम्बी अवधि (महीनों अथवा वर्षों) में होने वाला हार्ट फेलियर।

एक अन्य रीति से हार्ट फेलियर को इस आधार पर विभक्त किया गया था कि हृदय का बाएँ अथवा दाहिने में से कौन सा भाग फेल (दुर्बल) हुआ है।

इस रीति से हार्ट फेलियर को निम्न भेदों में विभक्त करने की परिपाटी विकसित की गई थी -

1. Left heart (ventricular) failure - अर्थात् हार्ट का बायां (वाम) भाग दुर्बल (फेल) हो रहा था। क्योंकि, हार्ट के बाएँ भाग में महत्वपूर्ण अंग लैफ्ट वैंट्रीकल (Left ventricle) ही रहता है, अतः इसे लैफ्ट वैंट्रीक्यूलर (Left ventricular failure) भी कहते थे;

2. Right heart (ventricular) failure - अर्थात् हार्ट का दाहिना (दक्षिण) भाग दुर्बल (फेल) हो रहा था। क्योंकि, हार्ट के दाहिने भाग में महत्वपूर्ण अंग राइट वैंट्रीकल (Right ventricle) ही रहता है, अतः इसे राइट वैंट्रीक्यूलर (Right ventricular failure) भी कहते थे;

3. Biventricular failure - अर्थात् जब हार्ट का बायां (वाम) व दाहिना (दक्षिण) दोनों भाग दुर्बल (फेल) हो रहे हों, तो इसे बाइ-वैंट्रीक्यूलर (Biventricular failure) कहते थे।

हार्ट फेलियर को विभक्त करने की तीसरी रीति थी, इसे हार्ट की पम्पिंग शक्ति के आधार पर दो भेदों में बाँटना -

1. Low output heart failure - अर्थात् जब हार्ट की पम्पिंग शक्ति उत्तरोत्तर कम होती जाए व यह देह की ब्लॅड (व उसमें रहने वाली ऑक्सीजन एवं पोषक पदार्थों) सप्लाई की आवश्यकता पूरी न कर सके ; तथा

2. High output heart failure - अर्थात् जब हार्ट की पम्पिंग शक्ति तो सामान्य रहती है, परन्तु देह-धातुओं की ब्लॅड (व उसमें रहने वाली ऑक्सीजन एवं पोषक पदार्थों) की आवश्यकता बढ़ जाती है व हार्ट उस बढ़ी हुई आवश्यकता को पूरा नहीं कर पाता।

इस प्रकार, ज्यों-ज्यों मैं हार्ट फेलियर को वर्णित व विभक्त करने के विभिन्न लेखकों व वैज्ञानिकों के दृष्टिकोणों को गहराई से जानने का प्रयास करता गया, मैं अपने आप को ज्ञान के गहरे सागर में गोता लगाता हुआ महसूस करता जा रहा था। गहराई के इस गोते से महसूस होने वाला आनन्द अभूतपूर्व था व शब्दों की वर्णन शक्ति से परे था।

इस प्रकार का व इस सीमा तक के दिव्य आनन्द का अनुभव मुझे कदाचित् जीवन में पहली बार हुआ था।
हार्ट फेलियर की सम्प्राप्ति की गुत्थियाँ एक-एक कर के मेरी आँखों के सामने खुलती जा रही थीं। ऐसा लग रहा था कि सब कुछ मेरे सामने घटित हो रहा हो।

मैं टेबल पर कुहनियाँ टिकाए, अपने हाथों से बनाए कप में अपना चेहरा लिए, आँखें बन्द करके, कितनी ही देर तक उस दिव्य आनन्द की अनुभूति करता रहा।
हार्ट में होने वाली विकृतियां व अन्य तमाम डायनैमिक्स (Dynamics) परत दर परत मुझे खुलते हुए लग रहे थे।

'इक्स्क्यूज़ मी, कुड आई हैव दिस बुक प्लीज़, इफ़ यू डोंट माइंड?' अत्यंत मधुरता व शिष्टता से एक पुरुष आवाज़ ने मुझे मेरी तन्द्रा से बाहर खींच लिया।

मैंने देखा एक सज्जन मेरे सामने पड़ी हर्स्ट की पुस्तक 'द हार्ट' की ओर इशारा करके, मुझे कह रहे थे।
'ऑफ कोर्स, सर!' मैंने हड़बड़ाहट में आँखें खोल कर खड़े होते हुए कहा व हर्स्ट की खुली पुस्तक 'द हार्ट' बन्द करके उनकी ओर बढ़ा दी।

'थैंक्यू!' उन्होंने चेहरे पर चौड़ी सी मुस्कान लाते हुए कहा, व पुस्तक उठा कर पास के टेबल पर चले गए ।
मैंने देखा, यह वही सज्जन थे जो लंच के समय मुझे इन्स्टिट्यूट कैंटीन में मिले थे।
आखिर यह हैं कौन? सोचते हुए मैं लायब्रेरी से बाहर आ गया।

बाहर निकलते समय मेरी नज़र लायब्रेरी रिसैप्शन पर लगी दीवार घड़ी पर पड़ी।
संध्या के 8 बज चुके थे।


क्रमशः ...



डाॅ.वसिष्ठ
Dr. Sunil Vasishth
M. + 91-9419205439
Email : drvasishthsunil@gmail.com

Monday, November 28, 2016

आयुर्वेद चिकित्सा के सिद्धांत व प्रयोग -40


हार्ट फेलियर (Heart failure) -2

सर सुन्दरलाल चिकित्सालय के प्रथम तल पर स्थित कायचिकित्सा वार्ड में पहुँच कर मैं नर्सिंग रूम में पहुँचा व ड्यूटी नर्स को श्री संगम लाल जी का बहिरंग चिकित्सा-पत्रक देते हुए एॅडमिशन फाइल बनाने व रोगी को बैड एॅलाॅट करने के लिए कहा ।

मेरी बात सुनते ही ड्यूटी नर्स ने रोगी को बैड अलाॅट करने में असमर्थता व्यक्त की। कारण, वाॅर्ड में प्रो. त्रिपाठी जी की कार्डियो-रैस्पिरेटॅरि युनिट के सभी बैड्स पहले से ही भरे पड़े थे।

मेरे अनुरोध करने पर उसने रोगी को कायचिकित्सा विभाग के ही एक अन्य युनिट का एक खाली बैड अलाॅट कर दिया।
कुछ ही मिनटों में श्री संगम लाल जी अपने बैड पर थे। उनकी वृद्ध पत्नी नीचे फर्श पर एक छोटी सी दरी पर बैठ गईं। 

मैं भी उनके बैड के पास पड़े एक स्टूल पर बैठ कर उनकी विस्तारपूर्वक रोगी-रोग वृत्त (History) लिखने लगा।
पेशे से दुकानदार श्री संगम लाल जी ने मुझे बताया कि वह पिछले लगभग 25-30 वर्ष से मधुमेह व हाई-ब्लॅड प्रैशर से पीड़ित थे।

इस दौरान वह कई अस्पतालों में व कई चिकित्सकों से एॅलोपैथिक व आयुर्वैदिक ईलाज ले चुके थे। इसी सिलसिले में विगत में वह हमारे युनिट में गुरुदेव प्रो. त्रिपाठी जी से भी चिकित्सा ले कर अच्छे हो चुके थे।
परन्तु, प्रायः सुधार होने पर वह ईलाज़ बन्द कर देते व तकलीफ़ होने पर दोबारा शुरु कर देते।

कुल मिला कर मधुमेह व हाई-ब्लॅड प्रैशर के लिए उनके द्वारा ली गई चिकित्सा अनियमित (Irregular) व अपूर्ण (Incomplete) थी।
उन्होेंने आगे बताया कि पिछले कुछ समय से वह अत्यधिक कमज़ोरी महसूस कर रहे थे तथा थोड़ा सा भी श्रम करने पर उन्हें थकावट, सीने में भारीपन व सांस फूलने जैसे कष्ट हो रहे थे। 

CORFLOZ Tablet काॅरफ्लोज़ टैब्लेट में मौजूद पुष्करमूल + अर्जुन + ब्राह्मी हृदय की रस-रक्त आपूर्ति (Coronary blood flow) को बढ़ाते हैं व इसे एक आदर्श हृच्छूलहर (Anti-anginal) औषध-योग बनाते हैं।

 
फिर मैंने उनकी सामान्य दैहिक परीक्षा (G.P.E.) आरम्भ की -

● ब्लड-प्रैशर अब भी लगभग वही 160/100 mm Hg था;
● नाडी दुर्बल परन्तु गति तीव्र थी;
● श्वासगति सामान्य से तीव्र थी;
● ग्रीवा-सिराओं का फूला हुआ होना बता रहा था कि ग्रीवा-सिरा-दाब (JVP) बढ़ा हुआ था;
● देह के अधो-अंगों (Dependent parts) में शोफ ( Edema) था जिसे अंगुली से दबाने से गड्ढा (Pitting on pressure) पड़ रहा था;
● नखों में पाण्डुता (Pallor) झलक रही थी, त्वचा रूक्ष, काँतिहीन, व किञ्चित् श्याव (Mild cyanosis) थी। 


SAMVYAN Tablet
  समव्यान टैब्लेट में मौजूद भूम्यामलकी समान-वायु (Thyroid & Liver), पुनर्नवा अपान-वायु (Kidneys & Intestines), जटामांसी उदान-वायु (Hypothalamus & Pituitary), शंखपुष्पी प्राण-वायु (Higher brain centres), व सर्पगन्धा व्यान-वायु (Vasomotor centre & Sympathetic nervous system) को साम्यावस्था (harmony) में ला कर वृद्ध रक्तचाप (High BP) को सामान्य बनाने का प्रयास करती है|
मगर उनका तापमान सामान्य था, त्वचा अथवा श्लैष्मिक कलाओं (Mucuos membranes) में पीत-वर्णता (Yellowishness) नहीं थी, तथा न ही उनके अंगुल्याग्र मुद्गरीकृत् (Clubbed) थे।
 
इसके पश्चात् मैंने सांस्थानिक परीक्षा (Systemic examination) की व देखा कि -

● उनकी श्वासगति बढ़ी होने के साथ-साथ श्वास-ध्वनि (Respiratory sound) किञ्चित् कर्कश (Rough) थी, व फुफ्फुसाधारों (Bases of lungs) में घुर्घुर-ध्वनि (Crepirations) भी सुनाई दे रही थी;

● उदर-परिधि (Abdominal girth) कुछ बढ़ी हुई थी; यकृत् स्पर्श-गम्य (Palpable), स्पर्शासह्य (Tender), मृदु (Soft), व श्लक्ष्ण (Smooth) था, व पार्श्वों में आकोठितं अशब्दम् (Dull percussion note on b/l flanks) था ;

● हृद्परीक्षा करने पर मैंने पाया कि जबकि प्रथम हृद्ध्वनि (S1) किञ्चित् दुर्बल व दबी हुई थी, द्वितीय हृद्ध्वनि (S2) प्रबल थी, तथा आकुञ्चन काल में एक मृदु मर्मर-ध्वनि (Soft systolic murmur) भी सुनाई दे रही थी।

तत्काल उनकी चिकित्सा आरम्भ करने के उद्देश्य से मैंने उनकी बाकी की परीक्षा मैंने बाद के लिए टाल दी।
मैंने पाया कि कफज प्रकृति वाले संगम लाल जी का सामान्य बल, स्वर, अग्निबल इत्यादि भले ही मन्द थे, व उनकी निद्रा भी कम थी, परन्तु उनका  सत्व बल अत्यंत प्रबल था। इतना सब होने के बावजूद उनका साहस प्रशंसनीय था।

केस हिस्टॅरि में तात्कालिक निदान (Provisional diagnosis) के आगे मैंने लिखा - Type 2 Diabetes mellitus, Hypertension, Congestive Cardiac Failure ।

अन्त में मैंने गुरुदेव प्रो. त्रिपाठी जी द्वारा निर्दिष्ट चिकित्सा लिखी -
R/

1. हृदयार्णव रस + जहरमोहरा + शृंग भस्म + नागार्जुनाभ्र (सभी उचित मात्रा में)
2. अर्जुन क्षीर पाक (उचित मात्रा में)
3. पुनर्नवाष्टक क्वाथ (उचित मात्रा में) ।

इसके साथ-साथ उन्होंने पहले से चली आ रही निम्न एॅलोपैथिक चिकित्सा को भी फिलहाल जारी रखने को कहा था, सो मैंने वह भी लिख डाली  -

1. Lanoxin Tab
2. Lasix Tab
3. Pot Klor Liquid
4. Diabenese Tab
5. Adelphane Tab

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  कार्डीटोन्ज़ टैब्लेट में मौजूद वनपलाण्डु हृदय को डिजिटैलिस की तरह बल देने का कार्य करता है। अर्जुन हृदय को बल देने के साथ-साथ हृदय को रस-रक्त की आपूर्ति भी बढ़ाता है। अकीक, ज़हरमोहरा, व गण्डीर भी हृद्य होने से कोई प्रकार से हृदय को बल देने व इसकी सुरक्षा करने का कार्य करते हैं। इन सब कर्मों के आधार पर कार्डीटोन्ज़ टैब्लेट हृद्दौर्बल्य (Heart failure) की चिकित्सा के लिए एक आदर्श औषध-योग बनता है।

 
फाइल पूरी करके मैंने उस पर अपने हस्ताक्षर किए व उसमें दिए गए चिकित्सा आदेशों को लागू करने के लिए फाइल ड्यूटी नर्स के हवाले कर दी।
गुरुदेव प्रो. त्रिपाठी जी द्वारा निर्दिष्ट चिकित्सा के सम्बन्ध में कई सारे प्रश्न मेरे मन में कुलबुला रहे थे, परन्तु उस समय मैंने उन पर अधिक ध्यान उचित न समझा। 

इसके बाद मैं नीचे भूतल पर ओ.पी.डी. में जाने के लिए तेज़ क़दमों से चलता हुआ वाॅर्ड से बाहर आ गया । अभी मैं सीढ़ियों की ओर जाने के लिए दाहिने मुड़ा ही था कि सामने से सीढ़ियाँ चढ़ कर ऊपर आते हुए मैंने कुछ लोग देखे।

मैंने देखा गुरुदेव प्रो. त्रिपाठी वाॅर्ड की ओर तेज़ी से बढ़े चले आ रहे थे व कायचिकित्सा विभाग के क्लीनिकल रजिस्ट्रार डाॅ. एॅच.एॅम. चन्दोला जी गुरुदेव के साथ-साथ चलते हुए बड़ी गम्भीरता से उन्हें किसी विषय की जानकारी दे रहे थे। उनके हाव-भाव से लगा रहा था कि विषय कुछ गम्भीर ही था। 

युनिट के बाकी लोग पीछे-पीछे चुपचाप चल रहे थे।
मैं वहीं एक तरफ़ खड़ा हो गया व मेरी ओर आते लोगों की प्रतीक्षा करने लगा।
ज्यों ही वह समूह मेरे पास से गुज़रा मैं धीरे से उनके साथ हो लिया। मुझे लगा कि डाॅ. ओंकार नाथ जी द्विवेदी को छोड़ अन्य किसी का भी ध्यान मुझ पर नहीं गया था।
हमारा समूह नर्सिंग रूम के पास, वार्ड के अन्तिम छोर पर रुका व वहाँ से शुरु होने वाले बैड नं. 17 से ग्रैंड राउंड शुरु हो गया।
नियम के अनुसार, रोगी का अटैंडिंग डाक्टर ही रोगी सम्बन्धित सम्पूर्ण जानकारी अन्य सभी डाक्टर्स (विशेष कर सुप्रीम बाॅस) को देते थे। 

क्योंकि उस समय यह उत्तरदायित्व मुझ से एक वर्ष वरिष्ठ एॅम.डी. स्काॅलर डाॅ. टी.एॅन. सिंह जी ही निभा रहे थे, अतः वह ही एक-एक करके सभी रोगियों के अपडेट्स गुरुदेव प्रो. त्रिपाठी जी व अन्यों को देने लगे थे। 

गुरुदेव हरेक रोगी के लिए आवश्यक विशिष्ट परीक्षाओं (Investigations) व चिकित्सा में परिवर्तन सम्बन्धी निर्देश दिए जा रहे थे।

डाॅ. टी.एॅन. सिंह जी निर्देशों को साथ-साथ रोगियों की फाइलों पर लिखे जा रहे थे।
हमारा काफ़िला तेज़ी से आगे बढ़े जा रहा था कि एक रोगी के पास पहुंचते ही उसका अपडेट देने के लिए डाॅ. चंदोला जी आगे आ गए। 

वह एक अधेड़ उमर का डायबिटीज का रोगी था व डाॅ. चन्दोला जी का रिसर्च पेशंट था। पूरी जानकारी लेने के बाद गुरुदेव ने डाॅ. चन्दोला जी को उस रोगी की चिकित्सा से सम्बंधित कई सारे सुझाव दिए ।

काफ़िला फिर आगे बढ़ने लगा। वाॅर्ड के अन्तिम रोगी को देखने के बाद गुरुदेव वापस मुड़ कर जाने ही लगे थे कि मैं लपक कर आगे बढ़ा व उनके एकदम सामने आ गया व उनसे पास ही की दूसरी वाॅर्ड के बैड पर भर्ती श्री संगम लाल जी को देखने का ज़ल्दी से आग्रह डाला।

गुरुदेव को, आज ही भर्ती श्री संगम लाल जी का केस स्मरण हो आया व उन्होंने मुझे उन के बैड तक चलने को कहा।
मैं तेज़ कदमों से श्री संगम लाल जी के बैड तक पहुँचा व झट से उनकी फाइल ले कर गुरुदेव व अन्य सभी को पेशंट की हिस्टॅरि व परीक्षा में मिली फाइंडिंग्ज़ का विस्तृत ब्यौरा देने लगा। 

यह मेरी प्रथम बैड-साइड केस प्रैज़न्टेशन थी व मैं घबराहट के मारे कुछ तेज़-तेज़ बोल रहा था।
गुरुदेव बड़ी तल्लीनता से सब कुछ सुने जा रहे थे। इस बीच किसी ने कुछ स्पष्टीकरण मांगने के लिए कुछ बोलना चाहा किन्तु गुरुदेव ने हाथ से बोलने वाले को चुप रहने का संकेत दे दिया।

सब कुछ सुनने के बाद गुरुदेव ने रोगी की फाइल अपने हाथ में ली व उसके पन्ने उलट कर लिखी हुई जानकारी को उड़ती नज़र से पढ़ा।

फिर उन्होंने श्री संगम लाल जी से कुशल क्षेम पूछी, उन्हें अच्छी से अच्छी चिकित्सा देने का आश्वासन दिया व अगले दिन उनके कुछ टैस्ट्स कराने के मुझे कुछ निर्देश दिए, जिनमें रक्त की सामान्य जाँच के साथ-साथ उरस् का एॅक्स-रे (X-rays chest) व ई.सी.जी. (ECG) भी थे। 

फिर उन्होंने मुस्कुराते हुए मेरी पीठ थपथपाई व कहा, 'वैल डन! हार्ट डिज़ीज़ में काफी अच्छी पकड़ है आपकी!'
उनके दिव्य हाथ के स्पर्श से मेरी देह का हरेक तन्तु झंकृत हो उठा था।
फिर वह घूमे, सबसे विदा ली व वाॅर्ड के मुख्य द्वार की ओर चल दिए ।

उनके पीछे अन्य सब लोग भी वाॅर्ड से निकल गए। सब के पीछे-पीछे मैं भी वाॅर्ड निकल आया।
मैं खुश था कि गुरुदेव को हार्ट फेलियर के पेशंट पर दी गई मेरी प्रैज़न्टेशन पसन्द आ गई थी।
सीढ़ियाँ उतरते समय जाने क्यों मुझे विश्वास हो चला था कि मेरे थीसिस वर्क के लिए निश्चित् रूप से गुरुदेव मुझे हार्ट डिज़ीज़ ही देंगे।

नीचे पार्किग में आ कर सब लोग अलग-अलग दिशाओं में चले गए - कुछ अपने घरों की ओर व कुछ छात्रावास की ओर।
और, मैंने सड़क के उस पार चिकित्सा विज्ञान संस्थान का रुख कर लिया ।

मैं जानता था, वहाँ सड़क के उस पार, चिकित्सा विज्ञान संस्थान के दूसरे तल पर कैंटीन का स्वादिष्ट भोजन व उसके पश्चात् भूतल पर पुस्तकालय में मोटी-मोटी पुस्तकें मेरी प्रतीक्षा कर रही थीं।


क्रमशः


डाॅ.वसिष्ठ
Dr. Sunil Vasishth
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आयुर्वेद चिकित्सा के सिद्धांत व प्रयोग - 39

हार्ट फेलियर (Heart failure) - 1


अगली प्रातः 7:30 बजे मैं कायचिकित्सा वार्ड में पहुँचा। मेरे संग मेरे सहपाठी डाॅ. ओंकारनाथ द्विवेदी भी थे।
अतर्रा-बान्दा (उत्तर प्रदेश) निवासी डाॅ. द्विवेदी एक परम सज्जन, सरल, व सन्तुष्ट व्यक्तित्व के स्वामी थे। कुछ ही दिनों के उनके साहचर्य से मुझे यह आभास हो गया था आगामी दो वर्षों का हमारा साथ अत्यन्त सुखद व स्नेहपूर्ण रहने वाला है।


(अपने पाठकों को बता दूँ कि आज 2016 में 32 बरस के बाद भी हम गहरे मित्र हैं व एक दूसरे को पहले से भी अधिक स्नेह करते हैं। यह बात जुदा है कि काफी समय से हम लोगों का मिलना नहीं हो पाया है।)

पिछले दिन जनरल ओ.पी.डी. का दिन होने से, बहुत सारे नए रोगी भर्ती किए गए थे, अतः वाॅर्ड रोगियों से खचाखच भरा था। 

अधिक नए रोगियों का अर्थ था, जाँच के लिए अधिक रोगियों का ब्लड निकालना, फिर निर्दिष्ट परीक्षाओं के लिए अधिक रिक्वीज़िशन फ़ाॅर्म्स का भरना, तथा और भी कई छोटे-मोटे काम करते हुए ब्लड के सैम्पल्ज़ को नर्सिंग स्टाफ़ को हैंडओवर करना।

इसके बाद शुरु हुआ रुटीन का मार्निंग राउंड । डाॅ. ओंकारनाथ द्विवेदी व मैंने सभी भर्ती रोगियों को पहले से दी जा रही चिकित्सा का संक्षिप्त जायज़ा लिया, व उनमें यथावश्यक परिवर्तन किए।

इसके बाद हम दोनों तेज़ कदमों से भूतल पर बहिरंग विभाग के कार्डियो-रैस्पीरटॅरि स्पैशल्टी ओ.पी.डी., कमरा नम्बर 22 में पहुँचे। 

रोगियों से खचाखच भरे उस स्पैशल्टी ओ.पी.डी. में डाॅ. बी.एॅन. उपाध्याय जी आने वाले रोगियों की जाँच कर रहे थे। वह कायचिकित्सा विभाग में प्रवक्ता व कार्डियो-रैस्पिरेटॅरि यूनिट में वरिष्ठता में द्वितीय क्रम के चिकित्सक थे।
उनके सामने की कुर्सी में, एॅम.डी. आयुर्वेद तृतीय वर्ष के स्कॉलर, डाॅ. टी.एॅन. सिंह रोगियों की हिस्टॅरि लेकर, व उसे रोगियों के बहिरंग चिकित्सा-पत्रकों (OPD Slips) पर लिखते हुए, डाॅ. उपाध्याय जी को सहयोग कर रहे थे।

डाॅ. उपाध्याय जी साधारण रोगियों को चिकित्सा लिख बाहर के कमरे से ही निपटाए जा रहे थे, जबकि गम्भीर रूप से बीमार रोगियों को भीतर के कमरे में बैठे कायचिकित्सा विभाग में प्रोफेसर व कार्डियो-रैस्पिरेटॅरि यूनिट के अध्यक्ष माननीय प्रो. एॅस. एॅन. त्रिपाठी जी के पास भेजे रहे थे।

मैंने डाॅ. उपाध्याय जी व डाॅ. सिंह, दोनों को हल्की सी मुस्कान के साथ धीरे से नमस्कार किया ।
डाॅ. उपाध्याय जी किसी रोगी का चिकित्सा-पत्रक लिख रहे थे। उन्होंने अपनी गर्दन ज़रा सी उठाई व हल्की सी मुस्कान के साथ सिर हिलाते हुए मेरे अभिवादन का उत्तर दिया व उनके बाईं ओर पड़ी एक खाली कुर्सी में बैठने का मुझे संकेत किया।

मैं धीरे से उस कुर्सी में बैठ गया। मेरे सहपाठी डाॅ. द्विवेदी जी एक अन्य खाली कुर्सी में बैठ गए।
डाॅ. टी. एॅन. सिंह लगभग साठ-पैंसठ वर्ष के एक रोगी से हिस्टॅरि ले रहे थे।
अपना काम पूरा करके डाॅ. सिंह ने टेबल पर पड़ा बी.पी. एॅपरेटस् मेरी ओर सरकाते हुए, उस रोगी का रक्तचाप (Blood pressure) देखने का मुझे संकेत किया।

स्टील के घूमने वाले स्टूल पर बैठै उस रोगी का धीरे से बाजू पकड़ कर, मैंने हल्का सा उसे अपनी ओर घुमाया व उसका ब्लड प्रैशर देखने लगा।
ब्लड-प्रैशर अधिक था; शायद 160/100 mm Hg ।


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आदर्श उच्च-रक्तचाप शामक औषध-योग, जो पांचों वायुओं का शमन करते हुए विषम व्यान (उच्च-रक्तचाप) को सम करती है|

मैंने देखा, उस रोगी का चेहरा कुछ फूला हुआ था, व उसे सांस लेने में कुछ कठिनाई हो रही थी।
मैंने ब्लड-प्रैशर की रीडिंग डाॅ. सिंह को बताई।
डाॅ. सिंह ने चिकित्सा-पत्रक पर ब्लॅड प्रैशर की रीडिंग लिखी, व फिर उसे मेज़ के दूसरी ओर बैठे, डाॅ. उपाध्याय जी की ओर सरका दिया।

डाॅ. उपाध्याय जी एक अन्य रोगी का चिकित्सा-पत्रक लिख रहे थे।
उस रोगी से मुक्त हो कर उन्होंने उच्च-रक्तचाप के उस रोगी का चिकित्सा-पत्रक उठाया व कुछ देर ग़ौर से पढ़ने के बाद डाॅ. सिंह के साथ कुछ विचार-विमर्श किया। 

फिर उन्होंने डाॅ. सिंह को उस रोगी के विषय में भीतर बैठे प्रो. त्रिपाठी जी से चर्चा करने व उनसे उसकी चिकित्सा के लिए मार्गदर्शन लेने के लिए कहा।
डाॅ. टी. एॅन. सिंह उठे व भीतर के कमरे में चले गए । उनके पीछे-पीछे, धीरे-धीरे वह रोगी भी भीतर के कमरे में चला गया।

कुछ देर बाद डाॅ. सिंह वापस बाहरी कमरे में लौट आए व मुझे भीतर के कमरे में जा कर गुरुदेव प्रो. त्रिपाठी जी से मिलने के लिए कहा।
बिना कुछ समझे मैं झटके से उठा व तेज़ गति से भीतर के कमरे की ओर लपका।
मैंने गुरुदेव के पाँव छू कर प्रणाम किया व चुपचाप उनके समीप खड़ा हो गया।

मैंने देखा गुरुदेव उस रोगी के चिकित्सा-पत्रक पर सबसे नीचे अपनी महीन लिखाई में कुछ लिख रहे थे।
चिकित्सा-पत्रक पर लिख लेने के बाद, गुरुदेव ने मेरी ओर देखते हुए कहा, 'डाॅ. सुनील जी, यह संगम लाल जी हैं, हमारे पुराने पेशंट। यह सागर, मध्य प्रदेश से हैं व अपने ईलाज के लिए यहाँ पहले भी कई बार आ चुके हैं।

 इन्हें डायबिटीज और हाइपरटैंशन हैं। मगर इस बार लगता है इन्हें हार्ट फेलियर (Heart failure) भी हो गया है; इसीलिए इन्हें एॅडमिट कर दिया है। ज़रा वाॅर्ड में जा कर इनका ट्रीटमंट शुरु करवा देते।'

CARDITONZ Tablet
दुर्बल हृदय को बल देने के लिए आदर्श औषध-योग, जो हृदय की आकुञ्चन शक्ति (Force of contraction) को बढ़ाता है व हार्ट फेलियर की चिकित्सा में वाँछित परिणाम देता है|

'जी सर!' कहते हुए मैंने गुरुदेव के हाथ से संगम लाल जी चिकित्सा-पत्रक लिया, व उन्हें अपने साथ कमरे से बाहर आने का संकेत किया।

बाहरी कमरे में आ कर मैंने गुरुदेव की कही बातें डाॅ. उपाध्याय जी को बताईं व उनकी भी स्वीकृति पा कर कमरे से बाहर बरामदे में निकल आया ।
मेरे पीछे-पीछे श्री संगम लाल जी व उनके पीछे उनकी पत्नी भी हो लिए।

क्रमशः


डाॅ.वसिष्ठ
Dr. Sunil Vasishth
M. + 91-9419205439
Email : drvasishthsunil@gmail.com
Website : www.drvasishths.com

Sunday, November 27, 2016

श्वास / श्वासकष्ट चिकित्सा - 2

MANAGEMENT OF DYSPNEA - 2

 

चिकित्सा (Management):

श्वासकष्ट के अनेकों हेतुओं के आधार पर इसकी चिकित्सा करनी चाहिए:

I. प्राकृत श्वासकष्ट  (Physiological dyspnea):
इसकी चिकित्सा की आवश्यकता नहीं।

II. ज्वरजन्य श्वासकष्ट (Dyspnea due to Infections):

(i) ज्वरहर / संक्रमणहर औषधियाँ (Anti-infective drugs) -
चिरायता, अतिविषा, गन्धक, यशद (Infex), गुग्गलु-योग, गुडूची,  मञ्जिष्ठा, सारिवा, निम्ब, दशमूल, शिलाजतु, पारद, ताम्र, मल्ल, स्वर्ण, स्फटिक, टंकण इत्यादि।

(ii) संतापहर औषधियाँ (Antipyretic drugs) -
वत्सनाभ, गोदन्ती (Dolid), गोजिह्वा, सहदेवी, अंकोल इत्यादि।

(iii) रसायन औषधियाँ (Antioxidant drugs) -
शिलाजतु, आमलकी, मुक्ताशुक्ति, स्वर्णमाक्षिक, अभ्रक, यशद (Minovit), स्वर्ण, अश्वगंधा, शतावरी, भल्लातक इत्यादि। 

III. रक्ताल्पता / पाण्डुरोग (Anemia):

(i) लौह यौगिक (Iron compounds) -
मण्डूर, लौह, स्वर्णमाक्षिक इत्यादि।

(ii) रसायन औषधियाँ (Antioxidant drugs) -
शिलाजतु, आमलकी, मुक्ताशुक्ति, स्वर्णमाक्षिक, अभ्रक, यशद (Minovit), स्वर्ण, अश्वगंधा, शतावरी, हरीतकी इत्यादि। 

IV. प्राणवह-स्रोतोगत व्याधियाँ (Respiratory diseases)

(A) प्राणवह-स्रोतोरोध (Airway obstruction) -
(i) निदान-परिवर्जनम् (Avoidance of the causative factors) -
धुआँ, धूलि, वायु-प्रदूषण से सुरक्षा करें।

(ii) श्वासनलिका-विस्फारक औषधियाँ (Bronchodilator drugs) -
अन्तमूल, दुग्धिका, अर्क, गण्डीर (Asthex), धत्तूरा, सोमलता इत्यादि।

(iii) कासहर / कफनिस्सारक  औषधियाँ (Anti-tussive / Expectorant drugs) -
कर्कटशृंगी, कण्टकारी, वासा, तुलसी, श्लेष्मातक, स्फटिक, वंशलोचन, पुदीना, कर्पूर, हरिद्रा इत्यादि।

(B) तमक-श्वास रोग (Bronchial asthma) -

(i) श्वासनलिका-विस्फारक औषधियाँ (Bronchodilator drugs) -
अन्तमूल, दुग्धिका, अर्क, गण्डीर (Asthex), धत्तूरा, सोमलता इत्यादि।

(ii) कासहर / कफनिस्सारक  औषधियाँ (Anti-tussive / Expectorant drugs) -
कर्कटशृंगी, कण्टकारी, वासा, तुलसी, श्लेष्मातक, स्फटिक, वंशलोचन, पुदीना, कर्पूर, हरिद्रा इत्यादि।

(iii) असात्म्यहर औषधियाँ (Anti-allergic drugs) -
शटी, मधुयष्टी, ज़हरमोहरा, यशद (Lergex), दुग्धिका, कण्टकारी, हरिद्रा, शिरीष, यवानी इत्यादि।

(iv) आमदोषहर औषधियाँ (Immunomodulator drugs) -
अश्वगंधा, गुडूची, भल्लातक, कटुकी, तुलसी, हरीतकी, यशद इत्यादि।

(v) रसायन औषधियाँ (Antioxidant drugs) -
शिलाजतु, आमलकी, मुक्ताशुक्ति, स्वर्णमाक्षिक, अभ्रक, यशद (Minovit), स्वर्ण, अश्वगंधा, शतावरी, हरीतकी इत्यादि।

(vi) निदान-परिवर्जनम् (Avoidance of the causative factors) -
धुआँ, धूलि, वायु-प्रदूषण से सुरक्षा करें।

(C) जीर्ण उरःक्षत (Chronic obstructive pulmonary diseases, COPD) -

प्राणवह-स्रोतोरोध (Airway obstruction) के समान चिकित्सा करें।

(D) श्वसनक-सन्निपात-ज्वर (Pulmonary infections) -

(i) ज्वरहर / संक्रमणहर औषधियाँ (Anti-infective drugs) -
चिरायता, अतिविषा, गन्धक, यशद (Infex), गुग्गलु-योग, गुडूची,  मञ्जिष्ठा, सारिवा, निम्ब, दशमूल, शिलाजतु, पारद, ताम्र, मल्ल, स्वर्ण, स्फटिक, टंकण इत्यादि।

(ii) कासहर / कफनिस्सारक  औषधियाँ (Anti-tussive / Expectorant drugs) -
कर्कटशृंगी, कण्टकारी, वासा, तुलसी, श्लेष्मातक, स्फटिक, वंशलोचन, पुदीना, कर्पूर, हरिद्रा इत्यादि।

(iii) संतापहर औषधियाँ (Antipyretic drugs) -
वत्सनाभ, गोदन्ती (Dolid), गोजिह्वा, सहदेवी, अंकोल इत्यादि।

(iv) रसायन औषधियाँ (Antioxidant drugs) -
शिलाजतु, आमलकी, मुक्ताशुक्ति, स्वर्णमाक्षिक, अभ्रक, यशद (Minovit), स्वर्ण, अश्वगंधा, शतावरी, हरीतकी इत्यादि।


क्रमशः (Continued)



डाॅ.वसिष्ठ
Dr. Sunil Vasishth
M. + 91-9419205439
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Thursday, November 24, 2016

श्वास / श्वासकष्ट चिकित्सा

MANAGEMENT OF DYSPNEA





चिकित्सा के लिए आने वाले रोगियों में श्वास / श्वासकष्ट (Dyspnea / Breathlessness) की शिकायत करने वाले रोगियों की संख्या काफी अधिक होती है।

इन रोगियों की सम्यक् चिकित्सा के लिए श्वासकष्ट उत्पन्न करने वाले कारणों का ज्ञान व स्मरण आवश्यक है।
आज का अपडेट इसी पर केन्द्रित है।
श्वासकष्ट के मुख्य हेतु (Common Causes of Dyspnea / Breathlessness):

श्वासकष्ट के अनेकों हेतु सम्भव हैं, इनमें से मुख्य हैं:

I. प्राकृत (Physiological):

● श्रम (Exercise);
● पर्वतारोहण (Mountaineering)

II. ज्वर (Infections)

III. रक्ताल्पता / पाण्डुरोग (Anemia)

IV. प्राणवह-स्रोतोगत व्याधियाँ (Respiratory diseases)

● प्राणवह-स्रोतोरोध (Airway obstruction);
● तमक-श्वास रोग (Bronchial asthma);
● जीर्ण उरःक्षत (Chronic obstructive pulmonary diseases, COPD);
● श्वसनक-सन्निपात-ज्वर (Pulmonary infections);
● फुफ्फुसीय शोफ  (Pulmonary edema);
● फुफ्फुसीय-धमनीरोध  (Pulmonary embolism);
● श्वासनलिकागत-विषार्बुद (Bronchogenic carcinoma);
● उरस्तोय (Pleural effusion);
● उरस्वायु (Pneumothorax)

IV. हृद्गत व्याधियाँ (Cardiac diseases)

● नव-हृदयाघात (Acute Myocardial infarction);
● हृत्कपाट रोग (Valvular heart disease);
● वाम-हृद्दौर्बल्य (Left ventricular failure);
● सहज-हृद्रोग (Congenital heart disease);

V. धात्वाग्निमांद्य-जन्य व्याधियाँ (Metabolic diseases)

● मधुमेह (Diabetes);
● वृक्क-अक्षमता (Uremia);
● पोटाशियम-अल्पता (Hypokalemia)

VI. वात व्याधियाँ (Neurologic diseases)

● श्वास-केन्द्र-अवसाद ( Respiratory cnter depression);
● वात-क्षयज चेष्टाहीनता (Motor neuron disease);
● वात-क्षयज मांसधातु-दौर्बल्य (Myasthenia gravis);

V. मानसिक श्वासकष्ट (Psychogenic dyspnea)



क्रमशः (Continued)....



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Wednesday, November 23, 2016

तेज़ी से बढ़ रही है आयुर्वेद की प्रासंगिकता

Relevance of ayurveda is increasing fast 




Tissue degeneration / deficiency diseases (धातुक्षयजन्य रोग)

    वर्तमान युग की मिथ्या-जीवनशैली के परिणाम-स्वरूप एक अन्य रोग-समूह (Group of diseases) जो पिछले कई दशकों से निरन्तर बढ़े जा रहा है, वह है  -  धातुक्षयजन्य रोग (Tissue degeneration / deficiency diseases)।

सामान्य तौर पर धातुक्षयजन्य रोगों (Tissue degeneration / deficiency diseases) का ज़िक्र आने पर सन्धिक्षय / सन्धिवात (Osteoarthritis / Osteoarthrosis / Degenerative joint disease) ही मन में आता है। किंतु सच तो यह है कि यह बड़ी तस्वीर का अत्यन्त क्षुद्र अंश है।

आयुर्वेद में आहार-विहार-आचार-औषध के सम्यक् प्रयोग से _सार धातुओं_ के निर्माण का स्वीकृत सिद्धांत है।
दूसरी ओर, आहार-विहार-आचार-औषध के मिथ्या प्रयोग से धातुक्षयजन्य (Tissue degeneration / deficiency diseases) कई प्रकार के रोगों का भी प्रत्यक्ष व परोक्ष वर्णन है।

सच तो यह है कि मिथ्या आहार-विहार-आचार-औषध एक ओर जहाँ दोषों की दुष्टि (Dysfunction of the neuro-endocrine system, enzymes, immunity) उत्पन्न कर के रोगोत्पत्ति करते हैं, वहीं दूसरी ओर धातुक्षय (Tissue deficiency / degeneration), ओजःक्षय (Low / deficient immunity), व स्रोतोदुष्टि (Abnormalities in the tissue channels) की स्थिति उत्पन्न कर भी रोगोत्पत्ति का मार्ग प्रशस्त करते हैं।

कैसे? आईए देखते हैं -

1. रस-क्षय से होने वाले रोग -

● Disorders caused by malnutrition
● Diseases caused by fluid and electrolyte imbalance
● Immune deficiency

2. रक्त-क्षय से होने वाले रोग -

● Anemias
● Leucopenia
● Bleeding disorders
● Immune deficiency

3. मांस-क्षय से होने वाले रोग -

● Muscular degeneration
● Muscular dystrophy
● Myopathies

4. मेद-क्षय से होने वाले रोग -

● Hypotriglyceridemia
● Hypocholesterolemia
● Deficiency of fluids in the joints (synovial), peritoneal cavity, pleural cavity, pericardial cavity, vitreous/aqueous humour, etc.

5. अस्थि-क्षय से होने वाले रोग -

● Osteoporosis

6. मज्जा-क्षय से होने वाले रोग -

● Bone marrow depression
● Blood dyscrasias

7. शुक्र-क्षय से होने वाले रोग -

● Male infertility
● Low libido in males

8. आर्तव-क्षय से होने वाले रोग -

● Female Infertility
● Low libido in females

यह मानवता व हम आयुर्वेद चिकित्सकों का सौभाग्य है कि आयुर्वेद में उपरोक्त धातुक्षयजन्य रोगों की चिकित्सा व इनसे रक्षा के लिए सम्यक् आहार-विहार-आचार के साथ-साथ अनेकों सामान्य व विशेष रसायनों की विस्तृत विवेचना की है जिनके आधार पर हम आधुनिक युग में इन लगातार बढ़ते रोगों की चिकित्सा कर सकते हैं।

कुछ मुख्य रसायन हैं -

1. रससार-कारक रसायन -

● शिलाजतु, आमलकी, स्वर्णमाक्षिक, मुक्ताशुक्ति, अभ्रक, यशद (Minovit);
● अश्वगंधा, शिलाजतु, दुग्धिका, मण्डूकपर्णी, यशद (Cartogen); 
● स्वर्ण, रजत, विधारा इत्यादि।

2. रक्तसार-कारक रसायन -

● शिलाजतु, आमलकी, स्वर्णमाक्षिक, मुक्ताशुक्ति, अभ्रक, यशद (Minovit);
● मण्डूर, लौह, गोमूत्र इत्यादि।

3. मांससार-कारक रसायन -

● अश्वगंधा, कपिकच्छु, शिलाजतु, यशद (HiGro);
● अश्वगंधा, शिलाजतु, दुग्धिका, मण्डूकपर्णी, यशद (Cartogen) इत्यादि।

4. मेदःसार-कारक रसायन -

● अश्वगंधा, शिलाजतु, दुग्धिका, मण्डूकपर्णी, यशद (Cartogen);
● शिलाजतु, आमलकी, अभ्रक, यशद (Minovit) इत्यादि।

5. अस्थिसार-कारक रसायन -

● मुक्ताशुक्ति, आमलकी, अभ्रक, यशद (Ossie);
● अस्थिशृंखला, अर्जुन, मण्डूकपर्णी (Nubon);
● प्रवाल, मुक्ता इत्यादि।

6. मज्जासार-कारक रसायन -

● शिलाजतु, आमलकी, अभ्रक, यशद (Minovit);
● गुडूची, रसायन, गोमूत्र, स्वर्ण, रजत, ताम्र , लौह, मञ्जिष्ठा, हरीतकी इत्यादि।

7. शुक्रसार-कारक रसायन -

● पुत्रञ्जीव, कोकीलाक्ष, शिलाजतु, त्रिवंग (Fertie-M);
● शिलाजतु, आमलकी, अभ्रक, यशद (Minovit); अश्वगंधा, कपिकच्छु, गोक्षुर, स्वर्ण इत्यादि।

8. आर्तवसार-कारक रसायन -

● शतावरी, पुत्रञ्जीव, शिलाजतु, त्रिवंग (Fertie-F);
● अशोक, लोध्र, लज्जालु (Gynorm);
● उलटकम्बल, हीराबोल,  घृतकुमारी (Mensiflo) इत्यादि ।

क्रमशः (Continued)....


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Dr.Vasishth
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आयुर्वेद चिकित्सा के सिद्धांत व प्रयोग - 38

आयुर्वेद का हृदयरोग विशेषज्ञ बनने की मेरी उत्कट इच्छा





जुलाई 1982 में हम बी.एॅच.यू. के इन्स्टिट्यूट अॅव मैडीकल साईंसिज (IMS, BHU) में एॅम.डी. आयुर्वेद प्रथम वर्ष की परीक्षा उत्तीर्ण कर द्वितीय वर्ष में आ गए।

द्वितीय वर्ष में आते ही दिनचर्या एकदम से बदल गई थी।  हमारे बैच के अधिकांश छात्रों ने इस बात से राहत की सांस ली थी कि चलिए अब प्रथम वर्ष की कसी हुई रूटीन से पिण्ड छूटा।

मगर मेरे लिए कुछ न बदला था।
मैं हर दिन प्रातः 6 बजे जगता, ज़ल्दी-ज़ल्दी तैयार होता, व 7:30 बजते-बजते बी.एॅच.यू. के सर सुन्दर लाल चिकित्सालय में कायचिकित्सा वार्ड में पहुँच जाता।

वहाँ पहुँच कर मैं नियमित राऊँड लगाता, जाँच के लिए रोगियों के ब्लड के सैम्पल्ज़ निकालता, व निर्दिष्ट शीशियों में डाल कर नर्सिंग स्टाफ़ के हवाले करता, जो आगे फिर उसी तल पर स्थित कायचिकित्सा लैब में उन्हें भेज देते।

तत्पश्चात् मैं भूतल पर स्थित कमरा नं. 22 में कार्डियो-रैस्पिरेटॅरि स्पैशल्टी ओ.पी.डी. में आ जाता व वहाँ आने वाले रोगियों को अटैंड करता व नियमानुसार गम्भीर रूप से बीमार रोगियों को यूनिट के वरिष्ठ चिकित्सकों को रैफर कर देता।

दोपहर के समय मैं सड़क के उस पार, चिकित्सा विज्ञान संस्थान के द्वितीय तल पर स्थित कैंटीन में भोजन करता, और उसके तत्काल बाद उसी भवन के भूतल पर स्थित इन्स्टिट्यूट लायब्रेरी में जा बैठता।

सायंकाल 7 बजे मैं पुनः कायचिकित्सा वार्ड में आ जाता, राऊँड करता, रोगी-पत्रकों (Case sheets) को भरता, उन पर आवश्यक टैस्ट लिखता, व लगभग 9 बजे अपनी सैकंड हैंड सायकल ले कर बी.एॅच.यू. के बाहर स्थित लंका के पंजाब होटल अथवा सेवक होटल में रात्रिभोजन करता।

अन्त में मेरी सायकल अनायास संकटमोचन हनुमानजी के मंदिर की ओर घूम जाती। फिर रात्रि लगभग 10-11 बजे नागार्जुन छात्रावास में अपने कमरा नं. 5 में लौटता।

कुछ देर पढ़ने के बाद मैं सो जाता और दूसरे दिन प्रातः 6 बजे से पुनः वही रूटीन शुरु हो जाती। 
कुछ ही दिनों में सब कुछ पूरी तरह से दिनचर्या में आ गया।
 
फिर कुछ सप्ताह बाद इस बात की चर्चा ज़ोरों से शुरु हो गई कि किस छात्र को शोध-प्रबन्ध (Thesis) के लिए कौन सा विषय (Topic) मिलेगा।

एक सायं मैं अपने गाईड श्रद्धेय प्रो. एॅस.एॅन. त्रिपाठी जी के नरिया स्थित सरकारी आवास पर, वार्ड में भर्ती यकृद्दाल्युदर-जन्य जलोदर (Ascites due to cirrhosis of liver) के रोगी की चिकित्सा के बारे में आवश्यक निर्देश लेने के लिए पहुँचा ।
बातों ही बातों में गुरुजी ने शोध-प्रबन्ध के विषय के बारे में मेरी रुचि जाननी चाही।

मैं जानता था कि गुरुजी कायचिकित्सा विभाग के कार्डियो-रैस्पीरेटॅरि इकाई (Cardio-respiratory unit) के अध्यक्ष थे। अतः यह स्वाभाविक ही था कि मुझे हृदयरोग (Cardiology) या फुफ्फुसरोग (Pulmonary diseases) में से ही किसी रोग पर शोध-प्रबन्ध के लिए कोई विषय मिल सकता था।

किन्हीं अज्ञात कारणों से, बी.ए.एॅम.एॅस. के दिनों से ही मेरी रुचि हृदय रोगों की ओर ही थी।
मैंने अपनी इच्छा गुरुजी पर प्रकट कर दी व वापस अपने नागार्जुन छात्रावास आ गया।
मैं खुश था। मुझे लग रहा था कि मेरा प्रिय विषय - हृद्रोग (Cardiology) मुझे अवश्य ही मिल जाएगा ।

छात्रावास के दालान में प्रवेश करते ही मैं अपने कमरे के लिए दाहिनी ओर घूमने ही वाला था कि सामने मैस की ओर से आती हुई एक आवाज़ ने मेरे क़दम रोक दिए।
'कहो डाॅ. सुनील कहाँ से आ रहे हैं?' बोलने वाले सज्जन मुझ से दो वर्ष वरिष्ठ छात्र थे। वह मैस के भीतर से खाना खा कर आ रहे थे।
'जी, गुरुजी के यहाँ से आ रहा हूँ!' मैंने हल्के से मुस्कुराते हुए कहा।

'वाह बेटा, अभी जुम्मा-जुम्मा चार दिन हुए नहीं सैकण्ड ईयर में आए, और बटरिंग (मक्खनबाज़ी) शुरु'! उन्होेंने एक कुटिल मुस्कान से मेरे चेहरे के भावों को पढ़ते हुए मेरी ओर देखा।
'जी नहीं! मैं तो किसी ज़रूरी काम से गया था', मैंने झेंपते हुए कहा।

'अरे हम सब जानते हैं। बी.एॅच.यू. में एक ही ज़रूरी काम होता है - बाॅस को मक्खन लगाने का काम। खैर, आओ यार बैठते हैं, मेरे कमरे में, कुछ गपशप करते हैं' उन्होंने मेरा हाथ पकड़ते हुए कहा, और मुझे अपने कमरे की ओर ले गए।
मैं अनमना सा, अपने वरिष्ठ छात्र के संग हो लिया ।

कमरे में पहुंचते ही उन्होंने मुझे बैड के पास पड़ी कुर्सी की ओर बैठने का संकेत किया व एक भद्दे स्वर में डकार लेते हुए बिस्तर पर लगभग पसर से गए।
स्पष्ट था, शुक्रवार संध्या के पकवान का आकण्ठ सेवन करने के बाद, वह बैठ पाने की स्थिति में तो कत्तई न थे।

मैंने कमरे में इधर-उधर नज़र दौड़ाई। हर वस्तु अत्यन्त करीने से सजाई गई थी। सजी वस्तुओं में शैल्फ़ में पड़ी उनकी पुस्तकें भी थीं, जो सम्भवतः महीनों से हिलाई तक न गई थीं।
'तो डाॅ. सुनील, थीसिस का टाॅपिक-वाॅपिक कुछ डिसाइड हुआ कि नहीं?' उन्होंने एक मोटे से तकिए पर कोहनी टिकाते हुए लापरवाही से पूछा।

'जी अभी तो नहीं, पर लगता है अगले कुछ दिनों में हो जाएगा', मैंने कुछ उत्साह से कहा। अचानक थीसिस के लिए अपने मनवांछित विषय, हृद्रोग के मिलने की सम्भावना के विचार से, मैं खुश हो गया था।
'वैसे आपको कार्डियक या रैस्पीरेटॅरि में से ही कुछ मिलेगा । त्रिपाठी जी के युनिट में इन दो टाॅपिक्स पर ही तो काम हो रहा है....'
उत्तर में मैं कुछ बोल पाता, वह फिर बोल उठे, 'वैसे आपका इंटेरैस्ट है किस में - हार्ट या चैस्ट?'

'जी, हार्ट ...' मैंने अपनी उत्सुकता को दबाते हुए, धीरे से कहा।
'हार्टऽऽऽऽऽऽऽऽ...?????', वह उचक कर बैठते हुए बोल उठे।
उनकी इस हरक़त को देख, मैं लगभग घबरा सा गया।

'अरे क्या करोगे हार्ट पे काम करके? कार्डियोलाॅजिस्ट बनना चाहते हो? वो भी चरक के ग्यारह श्लोकों (च.सू. 17:30-40) से?' मेरी बात से उनमें अचानक आ गई असहजता से मैं हतप्रभ था।
मुझे यह समझ पाने में कठिनाई हो रही थी कि आखिर मैंने ग़लत क्या कह दिया था।

'???' मैं कुछ न कह सका, बस प्रश्नात्मक निग़ाहों से उनकी अगली प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा करता रहा।
फिर वह तनिक सहज हो कर बोले, 'देखो भैया, आयुर्वेद में कुछ फर्क नहीं पड़ता कि आप हार्ट पे थीसिस लिखते हैं या लंग्स पे या किसी और पे। डिग्री वही मिलनी है - एॅम.डी. आयुर्वेद। तो काहे को बेमतलब की स्ट्रैस....? हैं??? मेरी मानो तो कोई हल्का-फुल्का सा टाॅपिक ले कर थीसिस जमा करा दो। कौन भाव देता है, एॅम.डी. आयुर्वेद की रिसर्च को? लायब्रेरी में जा कर देखो, हज़ारों थीसिस धूल चाट रहे हैं किसी कोने में। यही हश्र होने वाला है आपके थीसिस का भी....'

मेरा मन बैठने लग गया था। उनकी नकारात्मक बातों ने मेरी समस्त ऊर्जा निचोड़ दी थी। मेरा दम घुटने लगा था।
मैं उनके कमरे से बाहर निकलने का बहाना ढूंढ ही रहा था कि अचानक किसी ने कमरे के अधखुले दरवाज़े को खोलने के लिए हल्का सा धक्का दिया।

मैं सहसा उठा, अपने उन वरिष्ठ छात्र से हाथ मिलाया, व बदहवास कमरे से बाहर आ गया, यह देखे बिना कि आगन्तुक कौन था।
अपने कमरे में आ कर मैं बिस्तर पर औंधे मुँह लेट गया, निढाल, और मेरे उन वरिष्ठ छात्र के नकारात्मक विचारों की सत्यता पर ऊहापोह करने लगा।

फिर, सहसा मेरे मन में एक विचार विद्युत गति से उभर आया - 'हृदय रोग को चरक के ग्यारह श्लोकों तक सीमित कर देखना इस विशाल जीवन विज्ञान का घोर अपमान है। इस प्रकार का दृष्टिकोण उस संकुचित विचारधारा का परिणाम है, जो आयुर्वेद को पूर्णरूपेण आधुनिक विज्ञान की दृष्टि से देखती है। 

वास्तविकता तो यह है कि स्वास्थ्य व उससे जुड़ी समस्याओं को देखने व उनका समाधान करने की आयुर्वेद की शैली सर्वथा स्वतंत्र व विशिष्ट है, जिसके आधार पर न केवल हृद्रोग, अपितु पृथ्वी पर मौजूद समस्त रोगों को आयुर्वेद के शाश्वत सिद्धांतों के आधार  पर समझा व उनकी यथासम्भव चिकित्सा की जा सकती है।'

इस विचार ने मुझ में अप्रत्याशित ऊर्जा का संचार कर दिया था। मैं मुस्कुराया और उछल कर खड़ा हो गया।

मैंने अपने दोनों बाजू ऊपर उठाए, कस कर मुट्ठियाँ भींचीं, जबड़े कसे, और दाँत पीसते हुए अपने आप से कहा, 'हाँ, मैं बनूँगा आयुर्वेद का हृदयरोग विशेषज्ञ!'
क्रमशः


डाॅ. वसिष्ठ
Dr. Sunil Vasishth
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