Wednesday, November 23, 2016

आयुर्वेद चिकित्सा के सिद्धांत व प्रयोग: 28 'विकृतियों/रोगों के मूल कारण'




आयुर्वेद चिकित्सा के सिद्धांत व प्रयोग: 28
'विकृतियों/रोगों के मूल कारण'





एक प्रश्न वारंवार मेरे समक्ष उपस्थित हुए जा रहा था - 'देह-धातुओं में विकृतियों (रोगों) के मूल कारण क्या हो सकते हैं?'

हमारे पॅथाॅलजी के शिक्षकों ने आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के अनुसार निम्न हेतु बताए थे -

1. Infective organisms / worm infestation;
2. External injury - mechanical, physical, chemical, irradiation, etc.;
3. Lifestyle - Nutritional, over/under exertion, smoking/alcoholism, drugs;
4. Autoimmunity;
5. Psychological factors;
6. Aging;
7. Sex;
8. Congenital factors;
9. Heredity, etc.


मोटे तौर पर इन हेतुओं को 2 वर्गों में रखा जा सकता था -

1. Individual (Host)
2. Nature (Environment)


दूसरी ओर, आयुर्वेद विकृतियों (रोगों) के निम्न मुख्य हेतु मानता दीख रहा था -

1. पूर्व जन्म कृत् पापकर्म (आदिबलप्रवृत्त);
2. सहज (जन्मबलप्रवृत्त);
3. काल / स्वभाव / परिणाम;
4. दोषबलप्रवृत्त
5. मिथ्या आहार/विहार
6. मिथ्या आचार / सद्-वृत्त का अपालन, इत्यादि;
7. चिकित्सा व्यापत्


इन्हीं हेतुओं को मुख्य रूप से 3 वर्गो में विभक्त किया गया लगता था -

1. असात्म्य-इन्द्रिय-अर्थ संयोग;
2. प्रज्ञा-अपराध; व
3. परिणाम ।


इस प्रकार, आयुर्वेद विकृतियों (रोगों) के मुख्य 3 कारण मानता दीख रहा था, जबकि आधुनिक चिकित्सा विज्ञान 2 कारण ।
यह अन्तर किञ्चित् भ्रमित (confuse) करने वाला था।

अगले कई दिनों तक मैं इस विषय को स्पष्टता से समझने हेतु गहनता से विचार करता रहा।
एक सायंकाल कक्षा से निवृत्त हो, मैंने आई.एॅम.एॅस. भवन की तीसरी मञ्ज़िल पर स्थित कैंटीन में जलपान करके, लायब्रेरी में ही बैठ कर अध्ययन करने का कार्यक्रम बनाया।

उन दिनों हमारे फ़िज़िऑलॅजी के शिक्षक डाॅ. आर. के. शर्मा जी Nephron (मूत्रवहस्रोतस्) की फ़िज़िऑलॅजी पढ़ा रहे थे। परंतु, अपने तमाम प्रयासों के बावजूद मैं Nephron की फ़िज़िऑलॅजी को पूर्ण रूप से आत्मसात् न कर पा रहा था।

मुझे लगा, सम्भवतः मुझे Nephron की Electron Microscope में दिखने वाली रचना का गहनता से अध्ययन करना चाहिए । बस, इसी कार्य के लिए ही मैंने लायब्रेरी जाने का मन बनाया था।
परंतु, यह क्या?

अभी मैं तीसरी मंज़िल की सीढ़ियों पर ही पहुँचा था कि मेरे अन्तर्मन में एक विचार विद्युत गति से कौंध गया।
मैं सीढ़ियों पर ही रुक गया ।

फिर मैं उलटे पाँव लायब्रेरी की ओर भागा और सीधा आयुर्वेद विंग में पहुंचा। इसके पश्चात् मैंने एक काग़ज़ पर बेतहाशा तेज़ी से आने वाले विचारों को लिखना शुरू कर दिया ।

उन विचारों का सार कुछ निम्न प्रकार से था -

1. परिणाम को ही आयुर्वेद में काल व स्वभाव संज्ञाएँ दी गई हैं, तथा इसी को आधुनिक चिकित्सा विज्ञान Environment / Time / Nature नाम से पुकारता है।

2. प्रज्ञा-अपराध व्यक्ति स्वयं ही करता है। इसी को आधुनिक चिकित्सा विज्ञान Individual / Host factors कहता है।

3. असात्म्य-इन्द्रिय-अर्थ संयोग का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीँ है। इसका समावेश प्रज्ञा-अपराध व परिणाम में ही हो जाता है। उदाहरणार्थ, हम एक ऐसी पार्टी में जाते हैं जहाँ कर्ण-भेदी आवाज़ में संगीत बज रहा है। हम वहाँ 3-4 घण्टे रहते हैं । निश्चित रूप से यह असात्म्य-इन्द्रिय-अर्थ संयोग की परिधि में आता है। अब प्रश्न उठता है कि हम इतनी देर तक असात्म्य-इन्द्रिय-अर्थ संयोग क्यों कर कराते रहे? यदि हम ऐसा स्वेच्छा से करते हैं तो यह प्रज्ञा-अपराध-जन्य है, तथा यदि हम किसी मजबूरी में ऐसा करते हैं तो यह परिणाम-जन्य है।

घूम फिर कर आयुर्वेद भी रोगों (विकृतियों) के 2 मुख्य वर्गों को ही मानता दीख रहा था -

1. Individual (व्यक्ति / रोगी / प्रज्ञा-अपराध); व
2. Environment (परिणाम / स्वभाव / काल)।


तभी मुझे अपने बाएँ स्कन्ध पर किसी के भारी हाथ का स्पर्श महसूस हुआ व साथ ही ये स्वर भी सुनाई दिए, 'चलिए, डाॅ.'साब, रात के दस बजे गए।' लायब्रेरी के आयुर्वेद विंग के प्रभारी श्री विश्वनाथ झा पान चबाते हुए, अपने चिरपरिचित बनारसी अंदाज में मुस्कुराते हुए मुझे कह रहे थे।

मैं हड़बड़ा कर गहरी तन्द्रा से बाहर आया, झेंप से भरी मुस्कान से उनकी ओर देखा, अपना सामान समेटा, व तेज़ क़दमों से लायब्रेरी से बाहर निकल आया ।

विकृतियों (रोगों) के हेतुओं सम्बंधित विचारों में आई अनायास इस प्रकार की नवीन स्पष्टता से मेरा मेरा तन-मन प्रफुल्लित हुए जा रहा था।

तभी मुझे याद आया कि समय के अभाव से उस दिन मैंने सुबह से कुछ भी न खाया था...



डाॅ.वसिष्ठ
Dr. Sunil Vasishth
M. + 91-9419205439
Email : drvasishthsunil@gmail.com
Website : www.drvasishths.com

No comments:

Post a Comment