Wednesday, November 23, 2016

आयुर्वेद चिकित्सा के सिद्धांत व प्रयोग: 27 'विकृतियों का अति-सरलीकरण'



आयुर्वेद चिकित्सा के सिद्धांत व प्रयोग: 27
'विकृतियों का अति-सरलीकरण'





एॅम. डी. (आयुर्वेद) प्रथम वर्ष की पढ़ाई ज़ोर पकड़ती जा रही थी।
हर विभाग निर्धारित पाठ्यक्रम का अक्षरशः पालन करते हुए, अपने-अपने विषय को पढ़ाने व समझाने का भरपूर प्रयास किए जा रहा था ।

हर गुज़रते दिन के साथ, मुझे एॅम. डी. (आयुर्वेद) प्रथम वर्ष की पढ़ाई की सार्थकता का एहसास होता जाता था।

पाठ्यक्रम निर्माताओं ने अत्यंत बुद्धिमानी-पूर्वक विचार करते हुए, इस बात को सुनिश्चित करने का भरपूर प्रयास किया था कि इस एक वर्ष के भीतर, छात्र को मुख्य रूप से चिकित्सा विज्ञान के निम्न तीन पहलुओं का व्यापक (Comprehensive) प्रयोगात्मक (Practical) ज्ञान दे दिया जाए -

1. अनैटॅमी (शरीर रचना) व फ़िज़िऑलॅजी (शरीर क्रिया) के द्वारा शरीर की प्राकृत अवस्था (Normal state) का ज्ञान;

2. पॅथाॅलजी (विकृति-विज्ञान) के द्वारा शरीर की विकृत अवस्था (Abnormal state) का ज्ञान; व

3. फ़ाॅर्मकाॅलजी (भेषज विज्ञान) के द्वारा शरीर की विकृत अवस्था (Abnormal state) को प्राकृत अवस्था (Normal state) में लाने वाली औषधियों का ज्ञान।

मुझे स्पष्ट याद है कि सत्र के आरम्भिक दिनों से ही, आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के लगभग सभी शिक्षक इस बात पर विशेष बल दिए जा रहे थे कि एक विभाग में पढ़ाए जाने वाले किसी भी विषय को, पृथक् रूप से पढ़ने के बजाए, अन्य विभागों में उसी विषय से सम्बंधित दिए जाने वाले ज्ञान के साथ तालमेल बिठा कर पढ़ना अधिक श्रेयस्कर होगा।

मेरे शिक्षकों का यह परामर्श मुझे गहराई तक भा गया था । अतः मैंने अलग-अलग विभागों में दी जाने वाली, एक ही विषय से जुड़ी जानकारी में अधिकतम सामंजस्य बिठाते हुए, तत्-तत् विषय को आत्मसात् करने का हर सम्भव यत्न किया।

मेरी इस कार्यशैली का लाभ यह हुआ कि मेरा ज्ञान खण्डित (Piecemeal) न रह कर समष्टि (Totality) का रूप लेता गया ।
फलतः, इस प्रकार से आत्मसात् (Assimilated) ज्ञान केवल सैद्धांतिक (Theoretical) न रह कर, प्रायोगिक (Practical) होता गया ।

मेरे इस प्रकार के दृष्टिकोण का निर्माण करने में जिन एक शिक्षक ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, वह थीं - पॅथाॅलजी विभाग की प्रो. रत्नमाला गुप्ता जी।

अपने एक ओजस्वी व्याख्यान में प्रो. रत्नमाला जी ने कहा, 'पॅथाॅलजी को भली-भांति समझने के लिए अनैटॅमी व फ़िज़िऑलॅजी का ज्ञान अनिवार्य है, तथा फ़ाॅर्मकाॅलजी के अन्तरंग ज्ञान के लिए अन्य तीनों का ज्ञान अनिवार्य है। अतः ये चारों विषय एक ही तस्वीर के चार अविभाज्य भाव हैं जिन्हें एक दूसरे के साथ जोड़ कर देखना अनिवार्य है।'

फिर पॅथाॅलजी (विकृति) को आत्मसात् करने हेतु उन्होंने हमें Robbins & Cotran द्वारा लिखित 'Pathologic Basis of the Disease' नामक पुस्तक पढ़ने का परामर्श दिया।

बी.ए.एम.एस कोर्स में द्वितीय प्रोफैशनल के दौरान, राजकीय मैडीकल काॅलेज, जम्मू में पॅथाॅलजी विभाग के प्रोफेसर व अध्यक्ष, हमारे अत्यन्त सरल स्वभावी व मेधावी शिक्षक प्रो. सी. एॅल. गुप्ता जी ने पॅथाॅलजी विषय अत्यन्त सरलता व गहनता के साथ हमें पढ़ाया था। इसके साथ-साथ मैंने स्वयं भी Boyd's Pathology व Textbook of Pathology by N. C. Dey का गहन अध्ययन किया था।

किन्तु, Robbins & Cotran द्वारा लिखित 'Pathologic Basis of Disease' ने विकृति (Abnormality / Pathology) को देखने व समझने की मुझे एक सर्वथा हट कर दृष्टि दे दी थी।
मुझे लगने लगा था कि चिकित्सा के लिए आने वाले रोगियों को मुख्य रूप से निम्न में से कोई एक अथवा अधिक ही विकृतियां सम्भव हैं -

1. Inflammation;
2. Growth (Tumor / Hypertrophy);
3. Abnormal circulation of body fluids - Less circulation / Excessive circulation / Stasis;
4. Cell injury / degeneration / atrophy / death; व
5. Hyperactivity / Hypoactivity.


मुझे गहराई से आभास होने लगा था कि विकृतियों का यह अति-सरलित वर्गीकरण (Over-simplified classification), आयुर्वेद में वर्णित विभिन्न विकृतियों व सम्प्राप्तियों को समझने में मुझे अत्यधिक सहायक सिद्ध होने वाला है।
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बरसों बाद...

मेरी क्लीनिकल प्रैक्टिस में आने वाले प्रत्येक रोगी की परीक्षा करते हुए मैं अपने आप से निम्न प्रश्न करता हूँ -

1. क्या इसके शरीर के किसी अंगावयव में शोथ (Inflammation) है?

2. क्या इसके शरीर के किसी अंगावयव में नियन्त्रित (Hypertrophy) अथवा अनियन्त्रित (Tumor) धातु-वृद्धि (Growth) है?

3. क्या इसके शरीर के किसी अंगावयव में धातु-क्षय (Cell injury / degeneration / death) है?

4. क्या इसके शरीर के किसी अंगावयव में रस-रक्तादि तरल धातुओं का संवहन (Circulation) आवश्यकता से कम (Less) / अधिक (Excessive) / विकृत मार्ग (Abnormal channels) से / नहीँ (Stasis) हो रहा है?

5. क्या इसके शरीर का कोई अंगावयव आवश्यकता से अधिक (Hyperactivity) / कम (Hypoactivity) कार्य कर रहा है?
इत्यादि ।

कहने की आवश्यकता नहीँ कि मेरी यह कार्यशैली, चिकित्सा कार्य में पिछले 30 बरसों मुझे बहुत अधिक सहायक सिद्ध हुई है...


डाॅ.वसिष्ठ
Dr. Sunil Vasishth
M. + 91-9419205439
Email : drvasishthsunil@gmail.com
Website : www.drvasishths.com

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