Wednesday, November 23, 2016

आयुर्वेद चिकित्सा के सिद्धांत व प्रयोग: 34 'काशी की निराली होली'


  आयुर्वेद चिकित्सा के सिद्धांत व प्रयोग: 34
'काशी की निराली होली'







      फरवरी (1982) के मध्य में, ज़ोरों से चल रही पढ़ाई व वातावरण को तेज़ी से सुहावना करते वसन्त के दौरान, होली के आगमन की इक्का-दुक्का चर्चा सुनाई देना शुरु हो गई ।
यूँ तो रंगों का पर्व होली, समस्त भारत में भरपूर हर्षोल्लास से मनाया जाता है, परन्तु काशी की होली मुझे सब से निराली लगी।

एक संध्या, मैस में भोजन करने के बाद, मैंने अपने कमरे में क़दम रखा ही था कि छात्रावास के बाहर से मुझे ज़ोर-ज़ोर से बोलने की आवाज़ें आतीं सुनाई दीं।
मैंने झट से उछल कर बालकनी का दरवाज़ा खोला व बाहर आ कर इधर-उधर देखने लगा।
बाहर का दृश्य चौंकाने वाला था।

हमारे नागार्जुन हाॅस्टल के बिल्कुल सामने स्थित रुईया छात्रावास में रहने वाले संस्कृत के बहुत से छात्र, अपने कमरों के बाहर पंक्तिबद्ध खड़े होकर, हम नागार्जुन छात्रावास के वासियों को, ज़ोर-ज़ोर से ठहाके लगाते हुए, एक से एक भद्दी गालियाँ दिए जा रहे थे ।
क्रोध से मैं आगबबूला हो उठा।

मैं बदहवास अपने कमरे से निकल कर, लगभग दौड़ता हुआ, छात्रावास के प्रांगण में आ गया, व आगे बढ़ कर इस गाली-गलौच का कारण पूछने ही वाला था कि हमारे छात्रावास से बाईं ओर सटे (माडर्न एॅम.डी. व एम.एॅस. के) न्यु डाक्टर्स छात्रावास व दाहिनी ओर कुछ दूरी पर स्थित (एॅम.बी.बी.एस. के) धन्वन्तरि छात्रावास से भी ज़ोर-ज़ोर से गालियों व ठहाकों की आवाजें आने लगीं।
मुझे लगा कि बात कुछ गम्भीर है और मेरे बढ़ते क़दम ठिठक गए ।

गालियों वा ठहाकों का यह विचित्र संगम सचमुच विस्मित करने वाला था।
मैं वहीं जड़वत् खड़े-खड़े, इस विषय पर सोच ही रहा था कि तभी मैंने, तीन-चार वरिष्ठ छात्रों की हँसती-मुस्कुराती व आपस में ठिठोलियाँ करती एक टोली को, तेज़ गति से छात्रावास से बाहर आते देखा।
मगर यह क्या?

इससे पहले कि मैं उनसे इस अभूतपूर्व घटना के विषय में कुछ पूछ पाता, उन्होंने भी इस अनोखे आक्रमण का, ठहाकों से मिश्रित एक से बढ़कर एक, भद्दी गालियों से प्रतिकार करने के लिए मोर्चा सम्भाल लिया ।
मेरे इन वरिष्ठ छात्रों में डाॅ. जी.एॅस. तोमर (अधुना, प्रिन्सिपल राजकीय आयुर्वेद काॅलेज, हंडिया, इलाहाबाद व डीन कानपुर विश्विद्यालय) व उनके परम मित्र डाॅ. अरुण कुमार कौशिक भी शामिल थे ।

इससे पूर्व कि मैं कुछ समझ पाता, हमारे छात्रावास की ऊपरी मञ्ज़िल से भी गालियों की तेज़ बौछार होने लगी।
यह बौछार मेरे वरिष्ठ व प्रातः स्मरणीय डा. एच.एम. चंदोला जी के श्रीमुख से निकल रही थी, जो अपनी पतली आवाज़ व लच्छेदार गालियों से सम्पूर्ण वातावरण को अत्यंत लुभावना बना रहे थे।

शीघ्र ही कई अन्य आवाज़ों ने भी उनके सुर में सुर मिलाते हुए, सम्पूर्ण वातावरण गालीमय बना दिया था।
तभी मैंने अपने सहपाठी, डाॅ. मकसूदन सिंह जी को छात्रावास से बाहर आते देखा ।

मैं उनकी ओर लपका व लगभग घबराते हुए इस सबका कारण पूछा ।

'अरे डाॅ. सुनील, यह सब तो होली के उपलक्ष्य पर हो रहा है; अब तो यह सब होली तक चलेगा । अरे भाई, आख़िर यह काशी की होली जो ठहरी।' डाॅ. मकसूदन सिंह ने अपने चिरपरिचित धीर-गम्भीर अंदाज में कहा व आगे बढ़ कर गाली-वर्षा का रसास्वादन करने लगे।

'नान्सैन्स!' मेरे मुँह से अनायास निकला व मैं क्रुद्ध हो, पैर पटकता हुआ वापस अपने कमरे में आ गया। 'यह कोई ढंग है होली मनाने का?' मैंने अपने आप को बड़बड़ाते हुए सुना।

फिर यह दिनचर्या में सम्मिलित होने गया।
हर संध्या भोजनोत्तर ठहाकों से मिश्रित गालियों की स्वीट डिश मिलने लगी।
यह सिलसिला होली के दिन तक चलता रहा।

आश्चर्यचकित करने वाली बात तो यह थी कि गालियां अब मुझे बुरी लगने के बजाय आनन्दित करने लगी थीं।
होली पर गालियों के सहर्ष आदान-प्रदान के पीछे मुझे एक महत्वपूर्ण कारण दीख पड़ रहा था।

कदाचित्, त्यौहार के माध्यम से अपशब्दों के प्रति मानव की तीखी प्रतिक्रिया को कुंठित करने की यह मानस चिकित्सा है, जिससे दैनिक जीवन में घटने वाली अनेकों अप्रिय घटनाओं को रोका जा सकता है।

बुधवार, 10 मार्च 1982 के दिन हम सभी छात्र एक बड़ी सी टोली बना कर सभी गुरुजनों के घर गए, उन्हें रंग लगाया, उनसे आशीर्वाद ग्रहण किया, मिठाई खायी, कुछ दोहे सुने व सुनाए, व वापस छात्रावास आ गए।

मेरे जीवन की यह तब तक की सबसे बेहतरीन होली थी।



डाॅ.वसिष्ठ
Dr. Sunil Vasishth
M. + 91-9419205439
Email : drvasishthsunil@gmail.com
Website : www.drvasishths.com

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