Tuesday, November 22, 2016

आयुर्वेद चिकित्सा के सिद्धांत व प्रयोग: 12 'आयुर्वेद का सर्वांगीण विकास आवश्यक'


  आयुर्वेद चिकित्सा के सिद्धांत व प्रयोग: 12
'आयुर्वेद का सर्वांगीण विकास आवश्यक'





   उस दिन मैंने गत पांच वर्षों की लम्बी अवधि में बनी अपनी अनेकों धारणाओं को धराशायी होते देखा। जैसे -

1.  जिस गुग्गुलु को हम केवल शोथहर (anti-inflammatory) ही मान कर चल रहे थे, उसका उपयोग रक्त में बढ़े कोलेस्टरॉल व ट्राईग्लिसराईड्स को घटाने, व हृद्-धमनी-प्रतिचय (coronary atherosclerosis) को कम करने के लिए किया जा रहा था;

2.  जिस पुष्करमूल का उपयोग 'हिक्का-श्वास-कास-पार्श्वशूल-हराणाम् श्रेष्ठः' के आचार्य के कथन के आधार पर मैं केवल श्वसन-संस्थान (Respiratory system) की व्याधियों की तक ही सीमित देखता था, उसे हृद्-धमनी-विस्फारक (coronary vasodilator) व हच्छूलहर (anti-anginal) के रूप में उपयोग किया जा रहा था; तथा


3.  जिस शल्लकी का शायद ही कभी नाम लिया जाता था, वह आयुर्वेद की सर्वश्रेष्ठ शोथहर औषधि (anti-inflammatory drug) के रूप में स्थापित होने जा रही थी।


'बहुत कुछ हो सकता है', मेरे अन्तर्मन से एक आवाज़ आई। 'मगर उसके लिए सही वातावरण चाहिए जिसकी जम्मू में आशा करना व्यर्थ था।'

मेरे मानस-पटल पर लगभग दो वर्ष पूर्व की वह घटना बिजली की तरह कौंध गई, जब सरकार ने राजकीय आयुर्वैदिक काॅलेज, जम्मू के कुछेक विद्यार्थियों को छोड़, शेष सभी विद्यार्थियों को लगभग पन्द्रह दिनों तक जेल में बन्द कर दिया था। उनका दोष मात्र इतना भर था कि वे इस काॅलेज में पुनः प्रवेश आरम्भ करने की न्यायसंगत मांग कर रहे थे, जो तत्कालीन मुख्यमंत्री शेख़ मोहम्मद अब्दुल्लाह की सरकार ने लगभग दो वर्ष पूर्व बन्द कर दिया था।

जेल में बन्द इन विद्यार्थियों में से एक मैं भी था।
स्वतंत्रता कितनी अमूल्य होती है, इसका आभास मुझे जेल के उस प्रवास के दौरान ही पता चला।

मैं मानता हूँ, अपने प्रियजनों व समाज से अलग, जेल के किसी सूने से कमरे में रह कर एकाकी जीवन जीना कितना दूभर, नीरस, व भयावह होता है।
परंतु, शाश्वत जीवन विज्ञान आयुर्वेद की रक्षा व विकास के लिए यह कोई महती कीमत न थी। इस पावन कार्य के लिए तो कुछ भी किया जा सकता था ।

खेद तो इस बात का रहा कि ढाई माह के अनवरत संघर्ष व पन्द्रह दिन की जेल यात्रा का भी कोई लाभ न हो सका था। सिद्धांत रूप से मांगें मानने के बावजूद सरकार अपने वायदे से मुकर गई थी ।
हम सभी अपने आप को ठगा सा महसूस कर रहे थे ।

ऐसे राज्य में आयुर्वेद के वास्तविक विकास के लिए कुछ सार्थक कर पाने की संभावना धूमिल थी।
असम्भव को सम्भव बनाने की ज़िद में उपलब्ध संसाधनों का व्यर्थ उपयोग बुद्धिमानी नहीँ होती।
...


कुछ दिनों के पश्चात् इंटर्न के रूप मेरी ड्यूटी मेडीकल काॅलेज जम्मू के सर्जरी विभाग में आ गई। वहाँ मुझे सर्जरी विभाग के वरिष्ठ प्रोफेसर व प्रख्यात सर्जन डाॅ. के. एॅल. कपूर के साथ कार्य करने का सुअवसर मिला।
मैं अत्यंत प्रसन्न था । कारण, न केवल मुझे सर्जरी में अत्यंत रुचि थी अपितु डाॅ. के. एॅल. कपूर मेरे आदर्श भी थे । मन ही मन मैंने उनकी तरह एक सर्जन बनने का सपना संजोया था।

मैं जानता था कि आयुर्वेद में मेरा यह सपना साकार होना कठिन था। परंतु सपने तो बेलगाम व वास्तविकओं से कहीं परे होते हैं। वे निगोड़े नहीँ जानते कि मानव ने मानव के ही सपने चकनाचूर करने के लिये ऊंची-ऊँची दीवारें खड़ी कर रखी हैं जिन्हें फाँद पाना बहुधा कठिन होता है।

मेरे फाईनल प्रोफेशनल के दिनों से ही प्रो. कपूर मुझे अच्छी तरह पहचानने लगे थे।
ऐसे अनेकों मौक़े आए जब हमारी व एम.बी.बी.एॅस. फाईनल की संयुक्त क्लीनिकल क्लास के दौरान, उनके द्वारा पूछे गए प्रश्न का उत्तर केवल मैं ही दे पाया था।

ऐसे ही एक मौके पर उन्होंने मेरी ओर संकेत करते हुए आयुर्वेद व ऐलोपैथी के सभी विद्यार्थियों से कहा था, 'सी, ही इज़ ए बाॅर्न सर्जन (See, he is a born surgeon) ।
मेरे लिए उनका ऐसा कहना अन्य किसी भी पारितोषिक से अधिक महत्वपूर्ण था।

एक दिन किसी पोस्ट-ओपरेटिव पेशेंट के बारे में कुछ डिस्कस करने के उद्देश्य से मैं प्रो. कपूर के कक्ष में गया।
एक नर्स उनके साथ सर्जरी की वार्ड से सम्बंधित कुछ बातचीत कर रही थी ।
उन्होंने ने मुझे सामने पड़ी कुर्सी पर बैठने का संकेत किया व नर्स के साथ अपना वार्तालाप जारी रखा।

कुछ देर बाद जब नर्स चली गई तो उन्होंने मेरी ओर देखते हुए कहा, 'यैस डाॅक्टर?'
'सर, आई नीड टू डिस्कस अबाऊट ए पोस्ट-ओपरेटिव केस,' मैंने विनम्रता से कहा और उस केस के बारे में जो कुछ कहना था कह दिया।

फिर प्रो. कपूर से आवश्यक निर्देश प्राप्त करके जैसे ही मैं वार्ड में जाने के लिए उठने लगा तो उन्होंने मुझसे पूछा, 'वाॅट आर यू थिंकिंग टू डू आफ्टर योर ग्रैजुएशन?'
'सर प्रिपेअरिंग फाॅर पी.जी.' मैंने झिझकते हुए कहा ।

'विच सब्जेक्ट?' उन्होंने हल्की सी मुस्कान चेहरे पर लाते हुए पूछा ।
'सर, कायचिकित्सा; आई मीन मेडिसिन', मैंने सकुचाते हुए धीमे स्वर में कहा ।
'मेडिसिन?' उन्होंने आश्चर्य से कुछ ऊँचे स्वर में कहा । 'वाई डोंट यू ट्राई फाॅर सर्जरी? आई नो यू आर टू गुड इन सर्जरी ।'

'सर, आई डोंट थिंक देयर इज़ इग्जिस्ट्स मच स्कोप फाॅर सर्जरी इन आयुर्वेद', मैंने झेंपते हुए कहा ।
'आई डोंट थिंक सो । वन कुड डू ए लाॅट इन आयुर्वैदिक सर्जरी टू। आई नो ए वैरी फेमस आयुर्वैदिक सर्जन ऐट बनारस - डाॅ. देशपांडे ।' उन्होंने मेरी आँखों में गहराई से देखते हुए कहा।

'यू नो ही हैज़ डिवेलप्ड ए स्पेशल मैडिकेटिड थ्रेड फाॅर द ट्रीटमेंट आॅफ़ फिस्चुला इन ऐनो । आई मैट हिम इन ए कान्फ्रेंस सम टाईम बैक। ही इज़ सो स्मार्ट, इंटेलिजेंट, एण्ड एफिशिएंट।' वह कहते गए।
'यैस सर, आई हैव हर्ड ए लाॅट अबाऊट हिम। ही सीम्स टू बी ए मैचलैस सर्जन न आयुर्वेद ।' मैंने उनकी हाँ में हाँ मिलाते हुए कहा, और धीरे से कमरे से बाहर आ गया।

कमरे से बाहर आते समय मुझे प्रो. त्रिपाठी जी के शब्द स्मरण हो आए, 'आयुर्वेद के सर्वांगीण विकास के लिए सभी विभागों का विकास जरूरी है।'
मेरे मन के किसी कोने में सर्जन बनने की चाह अंगड़ाईयाँ लेने लगी थी।
...

कुछ दिनों के पश्चात् मेरी भेंट डा. बलवंत सिंह जी के साथ आयुर्वेद चिकित्सालय के बहिरंग विभाग में हुई।
डाॅ. बलवंत सिंह जी कुछ समय पूर्व बी.एॅच.यू. से शल्य में पी.जी. कर के आए थे।
मैंने उनसे अपने मन की बात कही। उन्होंने बहुत ही ईमानदारी से शल्य के क्षेत्र में आने वाली अनेकों चुनौतियों का ज़िक्र किया।

उनकी सब बातें ध्यानपूर्वक सुनने के बाद मैंने शल्य में पी. जी. करने का विचार सदा के लिए त्याग कर कायचिकित्सा में पी. जी. का दृढ़ निश्चय कर लिया ।
लक्ष्य निर्धारित करने के बाद मैं अपने आप को बहुत मज़बूत महसूस कर रहा था ।


अच्छी प्रकार से सोच समझ कर निर्धारित लक्ष्य सफलता की सम्भावना बढ़ा देता है।



डाॅ.वसिष्ठ
Dr. Sunil Vasishth
M. + 91-9419205439
Email : drvasishthsunil@gmail.com
Website : www.drvasishths.com

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